Poster of Dastaavez Episode 05 featuring renowned Hindi writer Shivmurti in an in-depth literary conversation on rural realism and social issues in Hindi literature.
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शिवमूर्ति : दस्तावेज एपिसोड 05 

“दस्तावेज़” की पाँचवीं कड़ी लेकर आई है समकालीन हिंदी साहित्य की एक ऐसी प्रभावशाली आवाज़ से मुलाक़ात, जिन्होंने ग्रामीण यथार्थ, जातीय संघर्ष, स्त्री चेतना, और सामाजिक बदलाव को अपनी कहानियों का मूल स्वर बनाया – शिवमूर्ति।
प्रख्यात कथाकार शिवमूर्ति से, जिनकी कहानियाँ खेत, खलिहान, जाति, वर्ग और स्त्री-जीवन के संघर्षों की जीवंत आवाज़ हैं। दस्तावेज़ सिर्फ़ एक साक्षात्कार श्रृंखला नहीं, बल्कि हमारे समय की साहित्यिक यात्रा है। इस एपिसोड में कृष्ण समिद्ध के साथ बातचीत में शिवमूर्ति खुलकर बात करते हैं अपने लेखन, संवेदना, ग्रामीण यथार्थ और कथा की ताक़त पर।
उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर में जन्मे शिवमूर्ति हिंदी कहानी, उपन्यास, और सामाजिक यथार्थ के प्रमुख कथाकारों में से एक हैं। उनकी कहानियाँ कसाईबाड़ा, तिरिया चरित्तर, भरतनाट्यम, सिरी उपमा जोग – न सिर्फ साहित्य में, बल्कि रंगमंच और सिनेमा में भी जीवंत प्रस्तुति बन चुकी हैं। उनका लेखन केवल कथा शिल्प नहीं, बल्कि समाज का दस्तावेज़ है , वह यथार्थ जो खेत, खलिहान और गाँव की धूल में साँस लेता है।
शिवमूर्ति हिंदी साहित्य की वह संवेदनशील आवाज़, जिसने ग्रामीण भारत की ज़िंदगी, संघर्ष, और बदलाव को कहानियों में सजीव किया। उनकी कहानियाँ किसी दस्तावेज़ की तरह समय, समाज और सत्ता के यथार्थ को उजागर करती हैं। शिवमूर्ति समकालीन Hindi literature के एक अनूठे कथाकार हैं, जिनकी कहानियाँ ग्रामीण भारत की धड़कन, संघर्ष और सच्चाइयों को अद्वितीय गहराई के साथ चित्रित करती हैं। उनका लेखन न केवल साहित्यिक, बल्कि सामाजिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।
उनकी कहानियाँ हिंदी कथा-साहित्य की विरल उपलब्धियाँ हैं, जो जाति, वर्ग, लैंगिकता और सत्ता के यथार्थ को अभिव्यक्त करती हैं। कथा-लेखन के क्षेत्र में प्रारम्भ से ही प्रभावी उपस्थिति दर्ज करानेवाले शिवमूर्ति की कहानियों में निहित नाट्य सम्भावनाओं ने दृश्य-माध्यमों को भी प्रभावित किया। कसाईबाड़ा, तिरिया चरित्तर, भरतनाट्यम तथा सिरी उपमाजोग पर फ़िल्में बनीं, जबकि ‘तर्पण’ उपन्यास पर एक फ़िल्म प्रस्तावित है। तिरिया चरित्तर, कसाईबाड़ा और भरतनाट्यम के हज़ारों मंचन हुए। अनेक देशी-विदेशी भाषाओं में रचनाओं के अनुवाद हुए। कुछ कहानियों का बांग्ला, पंजाबी, उर्दू, उड़िया, कन्नड़ आदि भाषाओं में अनुवाद हुआ है।
उपन्यास ‘त्रिशूल’ उर्दू एवं पंजाबी में, ‘तर्पण’ जर्मन में और ‘आख़िरी छलाँग’ कन्नड़ में अनूदित है। साहित्यिक पत्रिकाओं यथा – मंच, लमही, संवेद, नया ज्ञानोदय, समावर्तन तथा इंडिया इनसाइड ने इनके साहित्यिक अवदान पर विशेषांक प्रकाशित किए। पहली कहानी बीकानेर से प्रकाशित वातायान में ‘पानफूल’ शीर्षक से 1968 में प्रकाशित हो गई थी। 1976 में दिनमान द्वारा आयोजित अपढ़ संवाद प्रतिगिता में प्रथम पुरस्कार पाने से पुनः लेखन की ओर झुकाव हुआ। जनवरी 80 में धर्मयुग में ‘कसाईबाड़ा’ कहानी प्रकाशित हुई। 1991 में राधाकृष्ण प्रकाशन से ‘केशर-कस्तूरी’ कहानी-संग्रह और 1995 एवं 2004 में राजकमल प्रकाशन से ‘त्रिशूल’ और ‘तर्पण’ उपन्यास प्रकाशित हुए। 2008 में प्रकाशित तीसरा उपन्यास ‘आख़िरी छलाँग’ विशेष रूप से चर्चित रहा।

इस एपिसोड में शिवमूर्ति चर्चा करते हैं अपनी कथा लेखन की प्रक्रिया, ग्रामीण भारत का यथार्थ, जाति और वर्ग की जटिलता, स्त्री जीवन की अनकही कहानियाँ, और लेखक के रूप में उनके आत्मसंघर्ष और सामाजिक प्रतिबद्धता।
दस्तावेज़ में यह बातचीत पत्रकारिता नहीं, एक साहित्यिक श्रवण अनुभव है, जहाँ कैमरा केवल है, जहाँ कैमरा केवल चेहरा नहीं पकड़ता, वह मौन, संवेदना, और अंदर की कविता को भी दर्ज करता है। शिवमूर्ति की कहानियाँ कोई कल्पना नहीं, वे समाज के भीतर से उपजी आवाज़ें हैं आवाज़ें जो कहती हैं कि साहित्य केवल पढ़ा नहीं, महसूस किया जाता है।
यह एपिसोड उन सबके लिए ज़रूरी है, जो हिंदी साहित्य, ग्रामीण जीवन, लेखक की सोच, और सामाजिक यथार्थ में रुचि रखते हैं।

Poster image of "Dastavez: Episode 04 – A Conversation with Maitreyi Pushpa", featuring the celebrated Hindi author known for her bold feminist voice and rural narratives, with earthy tones and minimalist design reflecting the depth of literary dialogue. 'दस्तावेज़ : एपिसोड 04 – मैत्रेयी पुष्पा के साथ एक संवाद' के पोस्टर की छवि, जिसमें प्रसिद्ध हिंदी लेखिका का चित्र है, जो ग्रामीण चेतना और नारीवाद पर लिखने के लिए जानी जाती हैं; पोस्टर में गहरे रंग और गंभीर रचना-शैली का भाव प्रकट होता है।
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मैत्रेयी पुष्पा : दस्तावेज एपिसोड 04 

‘दस्तावेज़’ एक साक्षात्कार श्रृंखला की इस यात्रा की अगली कड़ी हमें ले जाती है उस स्त्री स्वर तक, जिसने नारी अस्मिता, ग्रामीण जीवन और सामाजिक विद्रोह को अपने शब्दों में अनसुनी तीव्रता के साथ रूपायित किया है-मैत्रेयी पुष्पा।
1 फ़रवरी 2019 को लिया गया यह साक्षात्कार, 12 जुलाई 2025 को ‘दस्तावेज़’ के माध्यम से प्रकाशित हो रहा है। यह केवल एक लेखिका से बातचीत नहीं है, यह उनकी स्मृतियों, संघर्षों और बेबाक दृष्टिकोण को समझने की एक रचनात्मक कोशिश है।
मैत्रेयी पुष्पा, जिनका जन्म उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिले के सिकुर्रा गाँव में हुआ और जिन्होंने बुंदेलखंड की मिट्टी से अपने अनुभवों को सींचा, हिंदी साहित्य में एक असाधारण जनपक्षधर स्वर बनकर उभरी हैं।
‘दस्तावेज़’ की यह कड़ी लेखन के उस ठोस, असुविधाजनक, लेकिन ज़रूरी भूगोल को उजागर करती है, जहाँ स्त्री न केवल लिखती है, बल्कि सामाजिक संरचनाओं को चुनौती देती है। इस एपिसोड में मैत्रेयी जी बात करती हैं-अपनी रचना-यात्रा के संघर्षों की, पितृसत्ता से टकराते स्त्री लेखन की और उस भाषा की, जो ग्रामीण चेतना, लोक संस्कृति और विद्रोह को एक साथ साधती है।
उनका लेखन ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ जैसी आत्मकथाओं से लेकर ‘चाक’, ‘इदन्न मम’, ‘अल्मा कबूतरी’ जैसे उपन्यासों तक स्त्री के अंत:संघर्षों, उसकी सामाजिक स्थितियों और उसकी चेतना की पड़ताल करता है।
यह एपिसोड, कैमरे के उस ठहरे हुए क्षण की तरह है, जहाँ लेखिका की आँखों में वह कविता चल रही होती है, जो पन्नों पर नहीं, आत्मा की गहराई में लिखी जाती है। ‘दस्तावेज़’ उस मौन को पकड़ने की कोशिश करता है, जहाँ लेखक की वाणी ठिठकती है, लेकिन उसकी दृष्टि बोलने लगती है।
यह संवाद मैत्रेयी पुष्पा की लेखकीय चेतना को नहीं, बल्कि उस स्त्री दृष्टि को उजागर करता है जो समाज की परतों में दबे हुए यथार्थ को निर्भीक स्वर देती है। यह वीडियो न केवल साहित्य में रुचि रखने वालों के लिए, बल्कि उन सभी के लिए आवश्यक है जो समाज के भीतर दबी आवाज़ों को सुनना चाहते हैं।
‘दस्तावेज़’ की यह कड़ी एक दस्तावेज़ है उस स्त्री साहस की, जो परंपरा से टकराने का जोखिम उठाती है — और पाठकों के हृदय में प्रतिरोध की नई चिंगारी जगाती है।

Poster of Dastaavez Episode 03 featuring Hindi poet and writer Anamika in an intimate literary conversation
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अनामिका : दस्तावेज एपिसोड 03 

‘दस्तावेज़’ की यह तीसरी कड़ी एक ऐसी कवयित्री की ओर हमें ले जाती है, जिनकी लेखनी में अनुभव, विमर्श और संवेदना का अनूठा संगम है-अनामिका।
बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर में जन्मी और दिल्ली में शिक्षित अनामिका न केवल समकालीन हिंदी कविता की एक सशक्त आवाज़ हैं, बल्कि स्त्री-विमर्श की गहरी समझ और आलोचनात्मक दृष्टि के लिए भी जानी जाती हैं।
इस एपिसोड में, ‘दस्तावेज़’ कविता के उस अंतरग पथ पर प्रवेश करता है, जहाँ शब्द केवल विचार नहीं, बल्कि जीवन के अनुभव से उपजे मौन का रूप होते हैं।
हिंदी कविता की समकालीन दुनिया की सबसे सशक्त आवाज़ों में से एक, कवयित्री अनामिका का यह विशेष साक्षात्कार ‘दस्तावेज़’ शो के लिए लिया गया है। इस बातचीत में अनामिका कविता लिखने की अपनी प्रक्रिया, जीवन के अनुभवों और स्त्री स्वर की भूमिका पर गहराई से बात करती हैं। यह वीडियो हिंदी साहित्य, कविता, नारीवादी चिंतन और आत्मकथात्मक लेखन में रुचि रखने वालों के लिए एक अमूल्य दस्तावेज़ है।
अनामिका बताती हैं कि कैसे उनके बचपन, पारिवारिक अनुभवों और सामाजिक संघर्षों ने उनकी रचनात्मकता को आकार दिया। साक्षात्कार में वे कविता को आत्मा की भाषा मानती हैं , एक ऐसी भाषा, जो प्रतिरोध, प्रेम और पहचान की बातें करती है। ‘दस्तावेज़’ का यह एपिसोड एक आत्मीय यात्रा है ,जहाँ शब्दों से जीवन को समझने की कोशिश की जाती है।

अनामिका की कविताएं‘खुरदरी हथेलियाँ’, ‘समय के शहर में’, ‘बीजाक्षर’ सिर्फ साहित्यिक पाठ नहीं, बल्कि स्त्री की चेतना, संघर्ष और सामाजिक विमर्श की जीवंत दस्तावेज़ हैं।
अनामिका हिंदी नारीवादी लेखन की एक अधिक बौद्धिक और दार्शनिक प्रवृत्ति का प्रतिनिधित्व करती हैं। वे एक कवयित्री, आलोचक और शिक्षाविद् हैं जो मिथकशास्त्र, मनोविश्लेषण और इतिहास से प्रेरणा लेकर लिंग को प्रश्नांकित करती हैं। मिथकों और इतिहास की पुनर्प्राप्ति: अनामिका प्राचीन मिथकों को पुनर्लेखित करती हैं ताकि स्त्री स्वरों और अनुभवों को केंद्र में लाया जा सके , यह कार्य कुछ हद तक पश्चिम में एड्रिएन रिच और जूडिथ बटलर के प्रयासों के समान है। स्त्री भाषा की खोज: वे भाषा के साथ प्रयोग करती हैं, एक ऐसी ‘स्त्री वाणी’ की तलाश करती हैं जो पितृसत्तात्मक व्याकरण का प्रतिरोध करती हो। उल्लेखनीय कृतियाँ: “टोकरी में दिगंत” : ग्रामीण बिम्बों, पौराणिक रूपकों और शहरी निराशा को स्त्रीवादी दृष्टिकोण से जोड़ता है। “पानी को सब याद था”: यह कविता स्मृति, तरलता और प्रतिरोध को एक स्त्रीवादी रूपक के रूप में प्रस्तुत करती है। अनामिका की नारीवादी दृष्टि अधिक प्रतीकात्मक और बहुस्तरीय है, जो सीधे सहानुभूति नहीं बल्कि आलोचनात्मक व्याख्या को आमंत्रित करती है।
‘दस्तावेज़’ की यह कड़ी एक औपचारिक इंटरव्यू नहीं है, बल्कि एक कवयित्री के आत्मसंघर्ष, स्मृति और रचनात्मक ताप को सुनने-समझने की एक सृजनात्मक यात्रा है।
कैमरा यहाँ केवल दृश्य नहीं कैद करता, बल्कि मौन की उस लय को पकड़ने की कोशिश करता है, जहाँ कविता जन्म लेती है।
यह एपिसोड अनामिका की साहित्यिक यात्रा को नहीं, बल्कि उस भीतरी स्थल को उजागर करता है जहाँ उनका लेखन शिल्प नहीं, जीवन का आत्मस्वर बन जाता है।
यह संवाद दर्शक को केवल सुनने नहीं, भीतर तक महसूस करने का निमंत्रण देता है,जहाँ कविता, कला और आत्मा एक साझा मौन में आकार पाते हैं।

Portrait of Arundhati Roy, Indian author and activist, known for 'The God of Small Things' and her socio-political essays.
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अरुंधति रॉय से इतनी नफ़रत क्यों?

अरुंधति रॉय केवल एक लेखिका नहीं, एक विचार हैं-जिससे कई लोग बहस करते हैं, और कई सिर्फ़ गाली देते हैं। आख़िर क्यों एक साहसी लेखिका, जिसने कश्मीर से लेकर नर्मदा घाटी तक आवाज़ उठाई, इतने तीखे घृणा की पात्र बनी? यह लेख उस राजनीतिक, सांस्कृतिक और मानसिक परत को खंगालता है जो एक विचारशील नागरिक को ‘राष्ट्रद्रोही’ मानता है।

Poster of Dastavez – Episode 2 featuring poet Rajesh Joshi, a literary interview series highlighting voices of Indian literature
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राजेश जोशी : दस्तावेज एपिसोड 02

10 फरवरी 2019 को दस्तावेज़ की यह यात्रा पहुँची एक ऐसे कवि के पास, जिनकी कविता हिंदी साहित्य के सामाजिक, राजनीतिक और मानवीय सरोकारों की एक सशक्त गूंज बन चुकी है-राजेश जोशी। यह दूसरा एपिसोड एक संवाद नहीं, बल्कि एक कवि की चेतना, स्मृति और संघर्ष की अंतर्यात्रा है। यह साक्षात्कार पटना में हुआ था। यह उस क्षण की तलाश है, जहाँ कविता केवल पंक्तियों में नहीं, बल्कि जीवन की चुप परतों में आकार लेती है।
राजेश जोशी, जिनका जन्म 1946 में मध्यप्रदेश के नरसिंहगढ़ में हुआ, हिंदी कविता के उन विरल हस्ताक्षरों में से हैं, जो चार दशकों से अधिक समय से अपनी गहन, प्रामाणिक और जन-सरोकारों से जुड़ी कविताओं के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने न केवल कविताएं, बल्कि कहानियाँ, नाटक, निबंध और अनुवाद भी लिखे हैं—हर विधा में भाषा और विचार का गहरा साक्षात्कार रचते हुए।
उनकी प्रमुख काव्य कृतियाँ—‘एक दिन बोलेंगे पेड़’, ‘मिट्टी का चेहरा’, ‘नेपथ्य में हँसी’ और ‘दो पंक्तियों के बीच’—जैसी रचनाओं में एक कवि का सधा हुआ स्वर है, जो जीवन की टूटन और संभावनाओं के बीच उम्मीद की एक चुप लौ जलाता है। उनकी कहानियाँ और नाटक भी उसी सामाजिक संवेदना से जुड़े हैं, जिनमें ‘सोमवार और अन्य कहानियाँ’, ‘कपिल का पेड़’, ‘जादू जंगल’, ‘अच्छे आदमी’ और ‘टंकारा का गाना’ शामिल हैं।
इस एपिसोड में हम न केवल राजेश जोशी की कविताओं की दुनिया में प्रवेश करते हैं, बल्कि यह भी समझते हैं कि कैसे एक कवि, गिरते हुए समय की धूल से भी कविता की चिनगारी ढूँढ़ लेता है। उनके शब्दों में सदी के छोर पर खड़े देष के संघर्षों, असहायताओं, और हिंसाओं की छवियाँ हैं और साथ ही है कविता की वह मशाल, जो इन अंधेरों से पार ले जाने की जिद रखती है।

इस एपिसोड में ‘एक दिन बोलेंगे पेड़’ हो या ‘मिट्टी का चेहरा’, राजेश जोशी की कविताएं मानो समय के खिलाफ दर्ज की गईं वे गवाही हैं, जो चुपचाप सब कह जाती हैं। दस्तावेज़ में हम केवल राजेश जोशी की कविताओं को नहीं सुनते, हम उस यात्रा को महसूस करते हैं जिसमें भाषा, स्मृति और प्रतिरोध एक त्रयी में मिलते हैं। यह एपिसोड उस ठहरे हुए क्षण को पकड़ता है, जहाँ एक कवि, एक नागरिक और एक संवेदनशील आत्मा तीनों एक हो जाते हैं।
यह श्रृंखला केवल कवि से प्रश्न नहीं करती, बल्कि उसकी आँखों में छिपी कविताओं को पढ़ने की कोशिश करती है। “दस्तावेज़” की दृष्टि वही है, जो शब्दों के परे जाकर उस मौन को समझती है, जिसमें कविता जन्म लेती है।
राजेश जोशी से यह संवाद एक ऐसी कविता है, जिसे पढ़ने के लिए आपको केवल आँखें नहीं, एक सजग संवेदना चाहिए। दस्तावेज़ का यह एपिसोड उसी संवेदना की दस्तक है।

Poster of Dastaavez Episode 01 featuring a literary conversation with Hindi writer Mamta Kalia, exploring her creative journey, thoughts on literature, and silent moments behind her writings.
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ममता कालिया : दस्तावेज एपिसोड 01

दस्तावेज एपिसोड 01: ममता कालिया से संवाद
9 सितम्बर 2018 को ‘दस्तावेज़’ की यह मौन यात्रा अपने पहले पड़ाव से आरंभ हुई-ममता कालिया के साथ एक गहरी, आत्मीय और संवेदनशील बातचीत के रूप में।
‘दस्तावेज़’ केवल एक श्रृंखला नहीं, बल्कि एक ऐसा प्रयास है जो कलाकार की उस आंतरिक भूमि तक पहुँचता है, जहाँ रचना जन्म लेती है,जहाँ शब्द मौन में बदल जाते हैं और मौन कला में। इसी भावना के साथ, पहला एपिसोड समर्पित हुआ उस लेखिका को, जिनकी लेखनी ने हिंदी साहित्य में स्त्री की आत्मस्वीकृति, समाज के द्वंद्व, और व्यक्तिगत अस्तित्व की जटिलताओं को रेखांकित किया—ममता कालिया।
02 नवम्बर 1940 को वृन्दावन में जन्मी ममता कालिया, हिंदी की उन विरल साहित्यकारों में हैं जिनकी उपस्थिति पिछले सात दशकों से हिंदी कहानी, उपन्यास, कविता, निबंध, नाटक और पत्रकारिता के हर मोर्चे पर जीवंत रही है। उनके भीतर एक सजग स्त्री की दृष्टि है, जो अनुभव की सतह को चीरकर सामाजिक यथार्थ और व्यक्तिगत अनुभूति का गहन आख्यान रचती है।
इस एपिसोड में, कैमरे ने न केवल उनके शब्दों को, बल्कि उनके मौन को भी सुना, उस मौन को जो हर रचनाकार की आत्मा में तपता है, और जो केवल तब प्रकट होता है जब कोई उसे पूछने नहीं, सुनने आता है।
यह संवाद केवल लेखकीय यात्राओं का दस्तावेज़ नहीं, बल्कि एक स्त्री की सांस्कृतिक चेतना, संघर्ष, और उसके भीतर पलती सृजन-चिंता का भी चित्र है। ममता कालिया की आवाज़ में जब ‘लड़कियाँ’, ‘दौड़’, ‘एक पत्नी के नोट्स’ जैसी रचनाएँ प्रतिध्वनित होती हैं, तब दर्शक केवल पाठक नहीं रह जाता, वह साक्षी बन जाता है उस यात्रा का, जिसमें जीवन, साहित्य और समय एक त्रयी बनकर गूंजते हैं।
यह एपिसोड ‘दस्तावेज़’ की उस मूल दृष्टि को मूर्त करता है, जो दृश्य और अदृश्य के बीच बसे साहित्यिक क्षणों को पकड़ने की कोशिश है। यह उस ठहरे हुए समय की तस्वीर है, जहाँ एक कवि, एक लेखिका, और एक स्त्री तीनों एक साथ बैठी मिलती हैं, अपने होने की कथा सुनाती हुईं।
दस्तावेज़, ममता कालिया के साथ इस प्रथम संवाद में, उस बिंदु को छूने का साहस करता है जहाँ लेखन शिल्प नहीं, बल्कि एक जीवनगत प्रतिज्ञा बन जाता है।

Poster of Dastavez – Episode 2 featuring poet Rajesh Joshi, a literary interview series highlighting voices of Indian literature
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दस्तावेज

“दस्तावेज़” केवल एक साहित्यिक साक्षात्कार श्रृंखला नहीं, बल्कि एक ध्यानपूर्ण यात्रा है , उन मौन क्षणों की ओर जहाँ कवि और कलाकार जन्म लेते हैं। राजेश जोशी, अनामिका और नरेश सक्सेना जैसी आवाज़ों के साथ यह श्रृंखला स्मृति और सृजन, संघर्ष और स्थिरता के बीच की अदृश्य धड़कनों को टटोलती है। यह एक ऐसी अनूठी हिंदी श्रृंखला है जहाँ कविता केवल शब्द नहीं, बल्कि एक उपस्थिति बन जाती है और मौन स्वयं बोलने लगता है। भारतीय साहित्य, रचनात्मक चेतना और कलात्मक सत्य के जिज्ञासुओं के लिए यह श्रृंखला एक अनिवार्य यात्रा है। यह एक तथ्य है कि ‘दस्तावेज़’ एक साक्षात्कार श्रृंखला है। लेकिन ‘दस्तावेज़’ केवल एक श्रृंखला नहीं, बल्कि मौन की एक लंबी यात्रा है, मन के उस कोने तक, जहाँ हर कवि-कलाकार की आत्मा में कुछ जन्म लेता है।
यह उस स्थान की तलाश नहीं जहाँ कवि जाते हैं, बल्कि उस क्षण की तलाश है जहाँ कवि बनते हैं, जहाँ कला संभव होती है …दृश्य और अदृश्य के उस मध्यवर्ती प्रदेश में, जिसे केवल मौन जानता है… और शायद कविता भी।