Poster for the film "Swaha – In the Name of Fire," showing a woman standing before a blazing fire altar, surrounded by ritual symbols and engulfed in warm, dramatic lighting.

हमारे समय का सबसे रंगहीन दृश्य -स्वाहा In the Name of Fire

स्वाहा – In the Name of Fire” अभिलाष शर्मा की स्वतंत्र मगही फिल्म है जो दलित विमर्श, लिंचिंग, अंधविश्वास और ग्रामीण सामाजिक बहिष्कार को संवेदनशीलता से चित्रित करती है।निर्देशक अभिलाष शर्मा की स्वतंत्र फिल्म स्वाहा एक ऐसे रंगहीन संसार की छवि प्रस्तुत करती है, जहाँ मानवीय रिश्ते राख में बदल जाते हैं और न्याय एक असंभव सपना लगता है। यह कहानी बिहार के एक दूर-दराज गाँव की है, जहाँ फेकन सामाजिक बहिष्कार, श्रम शोषण और हिंसक लिंचिंग की जर्जर यात्रा से गुजरता है, जबकि उसकी पत्नी रुखिया अंधविश्वास और अकेलेपन से जूझती है, जिसे समाज ‘डायन’ घोषित कर देता है।एफटीआईआई के पूर्व छात्र देवेंद्र गोलतकार की संवेदनशील छायांकन कला और शक्तिशाली अभिनय के साथ, स्वाहा में धूसर दृश्य न केवल एक शैली हैं, बल्कि हाशिए पर पड़े जीवनों में घटती मानवता का प्रतीक हैं। पटकथा में कुछ कमजोरियाँ होने के बावजूद, यह फिल्म एक गहरा सामाजिक टिप्पणी प्रस्तुत करती है और 2024 के शंघाई अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में सर्वश्रेष्ठ निर्देशक और सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के पुरस्कार से सम्मानित हुई है।

Poster of Dastaavez Episode 03 featuring Hindi poet and writer Anamika in an intimate literary conversation
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अनामिका : दस्तावेज एपिसोड 03 

‘दस्तावेज़’ की यह तीसरी कड़ी एक ऐसी कवयित्री की ओर हमें ले जाती है, जिनकी लेखनी में अनुभव, विमर्श और संवेदना का अनूठा संगम है-अनामिका।
बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर में जन्मी और दिल्ली में शिक्षित अनामिका न केवल समकालीन हिंदी कविता की एक सशक्त आवाज़ हैं, बल्कि स्त्री-विमर्श की गहरी समझ और आलोचनात्मक दृष्टि के लिए भी जानी जाती हैं।
इस एपिसोड में, ‘दस्तावेज़’ कविता के उस अंतरग पथ पर प्रवेश करता है, जहाँ शब्द केवल विचार नहीं, बल्कि जीवन के अनुभव से उपजे मौन का रूप होते हैं।
हिंदी कविता की समकालीन दुनिया की सबसे सशक्त आवाज़ों में से एक, कवयित्री अनामिका का यह विशेष साक्षात्कार ‘दस्तावेज़’ शो के लिए लिया गया है। इस बातचीत में अनामिका कविता लिखने की अपनी प्रक्रिया, जीवन के अनुभवों और स्त्री स्वर की भूमिका पर गहराई से बात करती हैं। यह वीडियो हिंदी साहित्य, कविता, नारीवादी चिंतन और आत्मकथात्मक लेखन में रुचि रखने वालों के लिए एक अमूल्य दस्तावेज़ है।
अनामिका बताती हैं कि कैसे उनके बचपन, पारिवारिक अनुभवों और सामाजिक संघर्षों ने उनकी रचनात्मकता को आकार दिया। साक्षात्कार में वे कविता को आत्मा की भाषा मानती हैं , एक ऐसी भाषा, जो प्रतिरोध, प्रेम और पहचान की बातें करती है। ‘दस्तावेज़’ का यह एपिसोड एक आत्मीय यात्रा है ,जहाँ शब्दों से जीवन को समझने की कोशिश की जाती है।

अनामिका की कविताएं‘खुरदरी हथेलियाँ’, ‘समय के शहर में’, ‘बीजाक्षर’ सिर्फ साहित्यिक पाठ नहीं, बल्कि स्त्री की चेतना, संघर्ष और सामाजिक विमर्श की जीवंत दस्तावेज़ हैं।
अनामिका हिंदी नारीवादी लेखन की एक अधिक बौद्धिक और दार्शनिक प्रवृत्ति का प्रतिनिधित्व करती हैं। वे एक कवयित्री, आलोचक और शिक्षाविद् हैं जो मिथकशास्त्र, मनोविश्लेषण और इतिहास से प्रेरणा लेकर लिंग को प्रश्नांकित करती हैं। मिथकों और इतिहास की पुनर्प्राप्ति: अनामिका प्राचीन मिथकों को पुनर्लेखित करती हैं ताकि स्त्री स्वरों और अनुभवों को केंद्र में लाया जा सके , यह कार्य कुछ हद तक पश्चिम में एड्रिएन रिच और जूडिथ बटलर के प्रयासों के समान है। स्त्री भाषा की खोज: वे भाषा के साथ प्रयोग करती हैं, एक ऐसी ‘स्त्री वाणी’ की तलाश करती हैं जो पितृसत्तात्मक व्याकरण का प्रतिरोध करती हो। उल्लेखनीय कृतियाँ: “टोकरी में दिगंत” : ग्रामीण बिम्बों, पौराणिक रूपकों और शहरी निराशा को स्त्रीवादी दृष्टिकोण से जोड़ता है। “पानी को सब याद था”: यह कविता स्मृति, तरलता और प्रतिरोध को एक स्त्रीवादी रूपक के रूप में प्रस्तुत करती है। अनामिका की नारीवादी दृष्टि अधिक प्रतीकात्मक और बहुस्तरीय है, जो सीधे सहानुभूति नहीं बल्कि आलोचनात्मक व्याख्या को आमंत्रित करती है।
‘दस्तावेज़’ की यह कड़ी एक औपचारिक इंटरव्यू नहीं है, बल्कि एक कवयित्री के आत्मसंघर्ष, स्मृति और रचनात्मक ताप को सुनने-समझने की एक सृजनात्मक यात्रा है।
कैमरा यहाँ केवल दृश्य नहीं कैद करता, बल्कि मौन की उस लय को पकड़ने की कोशिश करता है, जहाँ कविता जन्म लेती है।
यह एपिसोड अनामिका की साहित्यिक यात्रा को नहीं, बल्कि उस भीतरी स्थल को उजागर करता है जहाँ उनका लेखन शिल्प नहीं, जीवन का आत्मस्वर बन जाता है।
यह संवाद दर्शक को केवल सुनने नहीं, भीतर तक महसूस करने का निमंत्रण देता है,जहाँ कविता, कला और आत्मा एक साझा मौन में आकार पाते हैं।

Portrait of Arundhati Roy, Indian author and activist, known for 'The God of Small Things' and her socio-political essays.
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अरुंधति रॉय से इतनी नफ़रत क्यों?

अरुंधति रॉय केवल एक लेखिका नहीं, एक विचार हैं-जिससे कई लोग बहस करते हैं, और कई सिर्फ़ गाली देते हैं। आख़िर क्यों एक साहसी लेखिका, जिसने कश्मीर से लेकर नर्मदा घाटी तक आवाज़ उठाई, इतने तीखे घृणा की पात्र बनी? यह लेख उस राजनीतिक, सांस्कृतिक और मानसिक परत को खंगालता है जो एक विचारशील नागरिक को ‘राष्ट्रद्रोही’ मानता है।

Poster of Dastavez – Episode 2 featuring poet Rajesh Joshi, a literary interview series highlighting voices of Indian literature
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राजेश जोशी : दस्तावेज एपिसोड 02

10 फरवरी 2019 को दस्तावेज़ की यह यात्रा पहुँची एक ऐसे कवि के पास, जिनकी कविता हिंदी साहित्य के सामाजिक, राजनीतिक और मानवीय सरोकारों की एक सशक्त गूंज बन चुकी है-राजेश जोशी। यह दूसरा एपिसोड एक संवाद नहीं, बल्कि एक कवि की चेतना, स्मृति और संघर्ष की अंतर्यात्रा है। यह साक्षात्कार पटना में हुआ था। यह उस क्षण की तलाश है, जहाँ कविता केवल पंक्तियों में नहीं, बल्कि जीवन की चुप परतों में आकार लेती है।
राजेश जोशी, जिनका जन्म 1946 में मध्यप्रदेश के नरसिंहगढ़ में हुआ, हिंदी कविता के उन विरल हस्ताक्षरों में से हैं, जो चार दशकों से अधिक समय से अपनी गहन, प्रामाणिक और जन-सरोकारों से जुड़ी कविताओं के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने न केवल कविताएं, बल्कि कहानियाँ, नाटक, निबंध और अनुवाद भी लिखे हैं—हर विधा में भाषा और विचार का गहरा साक्षात्कार रचते हुए।
उनकी प्रमुख काव्य कृतियाँ—‘एक दिन बोलेंगे पेड़’, ‘मिट्टी का चेहरा’, ‘नेपथ्य में हँसी’ और ‘दो पंक्तियों के बीच’—जैसी रचनाओं में एक कवि का सधा हुआ स्वर है, जो जीवन की टूटन और संभावनाओं के बीच उम्मीद की एक चुप लौ जलाता है। उनकी कहानियाँ और नाटक भी उसी सामाजिक संवेदना से जुड़े हैं, जिनमें ‘सोमवार और अन्य कहानियाँ’, ‘कपिल का पेड़’, ‘जादू जंगल’, ‘अच्छे आदमी’ और ‘टंकारा का गाना’ शामिल हैं।
इस एपिसोड में हम न केवल राजेश जोशी की कविताओं की दुनिया में प्रवेश करते हैं, बल्कि यह भी समझते हैं कि कैसे एक कवि, गिरते हुए समय की धूल से भी कविता की चिनगारी ढूँढ़ लेता है। उनके शब्दों में सदी के छोर पर खड़े देष के संघर्षों, असहायताओं, और हिंसाओं की छवियाँ हैं और साथ ही है कविता की वह मशाल, जो इन अंधेरों से पार ले जाने की जिद रखती है।

इस एपिसोड में ‘एक दिन बोलेंगे पेड़’ हो या ‘मिट्टी का चेहरा’, राजेश जोशी की कविताएं मानो समय के खिलाफ दर्ज की गईं वे गवाही हैं, जो चुपचाप सब कह जाती हैं। दस्तावेज़ में हम केवल राजेश जोशी की कविताओं को नहीं सुनते, हम उस यात्रा को महसूस करते हैं जिसमें भाषा, स्मृति और प्रतिरोध एक त्रयी में मिलते हैं। यह एपिसोड उस ठहरे हुए क्षण को पकड़ता है, जहाँ एक कवि, एक नागरिक और एक संवेदनशील आत्मा तीनों एक हो जाते हैं।
यह श्रृंखला केवल कवि से प्रश्न नहीं करती, बल्कि उसकी आँखों में छिपी कविताओं को पढ़ने की कोशिश करती है। “दस्तावेज़” की दृष्टि वही है, जो शब्दों के परे जाकर उस मौन को समझती है, जिसमें कविता जन्म लेती है।
राजेश जोशी से यह संवाद एक ऐसी कविता है, जिसे पढ़ने के लिए आपको केवल आँखें नहीं, एक सजग संवेदना चाहिए। दस्तावेज़ का यह एपिसोड उसी संवेदना की दस्तक है।

Poster of Dastaavez Episode 01 featuring a literary conversation with Hindi writer Mamta Kalia, exploring her creative journey, thoughts on literature, and silent moments behind her writings.
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ममता कालिया : दस्तावेज एपिसोड 01

दस्तावेज एपिसोड 01: ममता कालिया से संवाद
9 सितम्बर 2018 को ‘दस्तावेज़’ की यह मौन यात्रा अपने पहले पड़ाव से आरंभ हुई-ममता कालिया के साथ एक गहरी, आत्मीय और संवेदनशील बातचीत के रूप में।
‘दस्तावेज़’ केवल एक श्रृंखला नहीं, बल्कि एक ऐसा प्रयास है जो कलाकार की उस आंतरिक भूमि तक पहुँचता है, जहाँ रचना जन्म लेती है,जहाँ शब्द मौन में बदल जाते हैं और मौन कला में। इसी भावना के साथ, पहला एपिसोड समर्पित हुआ उस लेखिका को, जिनकी लेखनी ने हिंदी साहित्य में स्त्री की आत्मस्वीकृति, समाज के द्वंद्व, और व्यक्तिगत अस्तित्व की जटिलताओं को रेखांकित किया—ममता कालिया।
02 नवम्बर 1940 को वृन्दावन में जन्मी ममता कालिया, हिंदी की उन विरल साहित्यकारों में हैं जिनकी उपस्थिति पिछले सात दशकों से हिंदी कहानी, उपन्यास, कविता, निबंध, नाटक और पत्रकारिता के हर मोर्चे पर जीवंत रही है। उनके भीतर एक सजग स्त्री की दृष्टि है, जो अनुभव की सतह को चीरकर सामाजिक यथार्थ और व्यक्तिगत अनुभूति का गहन आख्यान रचती है।
इस एपिसोड में, कैमरे ने न केवल उनके शब्दों को, बल्कि उनके मौन को भी सुना, उस मौन को जो हर रचनाकार की आत्मा में तपता है, और जो केवल तब प्रकट होता है जब कोई उसे पूछने नहीं, सुनने आता है।
यह संवाद केवल लेखकीय यात्राओं का दस्तावेज़ नहीं, बल्कि एक स्त्री की सांस्कृतिक चेतना, संघर्ष, और उसके भीतर पलती सृजन-चिंता का भी चित्र है। ममता कालिया की आवाज़ में जब ‘लड़कियाँ’, ‘दौड़’, ‘एक पत्नी के नोट्स’ जैसी रचनाएँ प्रतिध्वनित होती हैं, तब दर्शक केवल पाठक नहीं रह जाता, वह साक्षी बन जाता है उस यात्रा का, जिसमें जीवन, साहित्य और समय एक त्रयी बनकर गूंजते हैं।
यह एपिसोड ‘दस्तावेज़’ की उस मूल दृष्टि को मूर्त करता है, जो दृश्य और अदृश्य के बीच बसे साहित्यिक क्षणों को पकड़ने की कोशिश है। यह उस ठहरे हुए समय की तस्वीर है, जहाँ एक कवि, एक लेखिका, और एक स्त्री तीनों एक साथ बैठी मिलती हैं, अपने होने की कथा सुनाती हुईं।
दस्तावेज़, ममता कालिया के साथ इस प्रथम संवाद में, उस बिंदु को छूने का साहस करता है जहाँ लेखन शिल्प नहीं, बल्कि एक जीवनगत प्रतिज्ञा बन जाता है।

Poster of Dastavez – Episode 2 featuring poet Rajesh Joshi, a literary interview series highlighting voices of Indian literature
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दस्तावेज

“दस्तावेज़” केवल एक साहित्यिक साक्षात्कार श्रृंखला नहीं, बल्कि एक ध्यानपूर्ण यात्रा है , उन मौन क्षणों की ओर जहाँ कवि और कलाकार जन्म लेते हैं। राजेश जोशी, अनामिका और नरेश सक्सेना जैसी आवाज़ों के साथ यह श्रृंखला स्मृति और सृजन, संघर्ष और स्थिरता के बीच की अदृश्य धड़कनों को टटोलती है। यह एक ऐसी अनूठी हिंदी श्रृंखला है जहाँ कविता केवल शब्द नहीं, बल्कि एक उपस्थिति बन जाती है और मौन स्वयं बोलने लगता है। भारतीय साहित्य, रचनात्मक चेतना और कलात्मक सत्य के जिज्ञासुओं के लिए यह श्रृंखला एक अनिवार्य यात्रा है। यह एक तथ्य है कि ‘दस्तावेज़’ एक साक्षात्कार श्रृंखला है। लेकिन ‘दस्तावेज़’ केवल एक श्रृंखला नहीं, बल्कि मौन की एक लंबी यात्रा है, मन के उस कोने तक, जहाँ हर कवि-कलाकार की आत्मा में कुछ जन्म लेता है।
यह उस स्थान की तलाश नहीं जहाँ कवि जाते हैं, बल्कि उस क्षण की तलाश है जहाँ कवि बनते हैं, जहाँ कला संभव होती है …दृश्य और अदृश्य के उस मध्यवर्ती प्रदेश में, जिसे केवल मौन जानता है… और शायद कविता भी।