Lipistick Boy शोध और स्क्रीनप्ले

The Lipistick Boy : शोध, स्क्रीनप्ले और सिनेमा – कृष्ण समिद्ध
“सास्त्र न पढले, निपट चपाटे,
बिन पूर्जा के उडन खटोला
बोले न आवे, जेहो पर ड्रामा।“
(स्रोत: -1, लखी चंद मांझी,Nach bhikadi nach , Jainendra Dost-Shilpi Gulati, 2019)
 
                                                    यह बात नाच मंडली के संगी लखी चंद मांझी ने भिखारी ठाकुर के बारे में कही है और भिखारी ठाकुर के बिना लौंडा नाच की बात अधूरी रहेगी। भिखारी ठाकुर नाच मंडली के संगी रामचंद्र मांझी के अनुसार भिखारी ठाकुर का लौंडा नाच कमर लचकाना नहीं है – “डांर चलावे (कमर चलाना) नाच न, कसरत है।“ ( स्रोत: -2, Nach Bhikadi Nach, Jainendra Dost-Shilpi Gulati, 2019) । भिखारी ठाकुर नाच मंडली के संगी राम चंद्र छोटे के अनुसार भिखारी ठाकुर का लौंडा नाच कथा और मनोरंजन के बहाने समाज सुधार का माध्यम है। मगर समाज में इन लौंडा कलाकार की दशा अच्छी नहीं रही है। रामचंद्र मांझी कभी अपने साथी नचनिया को घर पर खाने के लिए नहीं बुलाते थे। पत्नी सुदामा से अपने लौंडा नाच पर कुछ बातचीत नहीं करते थे। इन कलाकारों की इज्जत उनकी पत्नियां तक नहीं करती थीं। वे नाच के बाद सारा मेकअप पोंछ-पाछ कर ही घर आते थे। लौंडा नाच के कलाकार समाज की नजर में हीन तो थे ही, स्वयं अपनी नजर में भी हीनता ग्रंथि से ग्रस्त थे। “जै नाची, सै नै बाची” या “घाघरा पहनेगो, तो कोई न उठाएगा ही” अर्थात स्त्री के शरीर की तरह लौंडा का शरीर और मन पुरुष हिंसा का शिकारगाह बन जाता है। दूसरी तरफ “लौंडा नाच सिर्फ एक नृत्य रूप नहीं है, बल्कि यह हमारे समाज का एक प्रतिबिंब है। यह जीवन शैली, हमारी संस्कृति का उत्सव और हमारी पहचान का अभिव्यक्ति है।”भिखारी ठाकुर ऐसा मानते थे।(स्रोत:3, “Bhikhari Thakur and Launda Naach” , कमलेश पांडेय, The Wire , 30 अगस्त, 2020)। पर समाज में लौंडा कलाकार ‘अछूत कलाकार’ की तरह ही रहे। इसलिए संमाज के ‘अछूत कलाकार लौंडा’ के जीवन पर बनी अभिनव ठाकुर की ” द लिपस्टिक बॉय” आवश्यक विषय पर बनी फिल्म है। यह फिल्म इन ‘अछूत कलाकार लौंडा’ के साधारण जीवन की असाधारण कथा हो सकती है, मगर वह जादू इस फिल्म में नहीं हो सका । इसके कारण को समझने के लिए इस फिल्म और लौंडा कलाकार के सांस्कृतिक इतिहास एवं वर्तमान यथार्थ के अन्तर संबंध को समझना होगा। साथ ही इतिहास और यथार्थ पर उपलब्ध शोध को अच्छे स्क्रीनप्ले में बदलने का प्रश्न अलग है।
 
                                                  अभिनव ठाकुर की ” द लिपस्टिक बॉय” ट्रेजडी, कॉमेडी, रोमांस, मेलोड्रामा और कुछ लौंडा नाच का एक चालाक बॉलिवुडियन मिश्रण बनाने का प्रयास है। “द लिपस्टिक बॉय” को नालंदा के रंगकर्मी कुमार उदय सिंह का बायोपिक फिल्म बताया जा रहा है, मगर ऐसा है नहीं। फिल्म का कुमार उदय सिंह मंच पर नाच करते हुए मर जाता है, मगर 24 मार्च को पटना के मोना सिनेमा फिल्म के शो में कुमार उदय सिंह उजले शर्ट में हमारे बीच टहल रहे थे। स्पष्ट है कि फिल्म निर्माताओं ने उनके जीवन और फिक्शन को मिलाकर जो फिल्म तैयार की है, वह एक व्यक्ति उदय सिंह की जगह पर लौंडा नाच से जुड़े सभी कलाकारों के अन्तर्मन और जीवन संघर्ष की सामूहिक कथा में बदल जाती है। यह फिल्म बिहार के लिए दोहरी खुशी का अवसर है, फिल्म के निर्देशक अभिनव ठाकुर एफ.टी.आई से पास आउट हैं और बिहार के ही हैं। अभिनव ठाकुर के फिल्मकार बनने की कहानी कम फिल्मी नहीं है, उन्होंने फिल्म शिक्षण के लिए पैसे जोड़ने के लिए पेपर अख़बार तक बेचा है। वैसे यह फिल्म पटना रंगंमच के लिए आनंद का विषय है कि इस फिल्म में पटना रंगमंच के कई जाने चहरे दिखते है- रविकांत सिंह, बिजेंद्र कुमार टांक और अन्य साथी। मेरे लिए इस फिल्म का होना व्यक्तिगत खुशी की बात है – दो कारणों से। पहला कारण Ravi Kant Singh का इस फिल्म में होना है क्योंकि मैंने और रविकांत सिंह ने एक ही साथ पहला नाटक किया था। दूसरा कारण यह कि इस फिल्म के निर्देशक अभिनव ठाकुर मेरे कविता के सहयात्री…साथी प्रशांत विप्लवी के गाँव के हैं …..और प्रशांत विप्लवी सिनेमा जगत में अपने गाँव के इस योगदान से अति खुश हैं …..और साथी की खुशी अपनी खुशी होती है।
 
                                              अभिनव ठाकुर की यह तीसरी फिल्म है। अभिनव ठाकुर की पहली फिल्म ‘यह सुहागरात इम्पॉसिबल’ 2019 में आयी थी, जो शादी के दौरान होने वाले नाटक, अव्यवस्था, सांस्कृतिक अंतर और अहंकारी टकराव पर केंद्रित है। यह फिल्म पति और पत्नी के मध्य अहंकार, शक और असंवाद होने के कारण खराब होते संबंध की पड़ताल करती है।अभिनव ठाकुर की दूसरी फिल्म बैकवाटर (2022) है, यह केरल से गायब होने वाले कुछ बच्चों पर आधारित थ्रिलर फिल्म है। अभिनव ठाकुर ने बिहार के बॉबी हत्याकांड पर भी एक फिल्म बनाने की घोषणा की थी। इन अर्थों में अभिनव ठाकुर एक अनुभवी फिल्मकार हैं और इसलिए इस फिल्म के कई सबल पक्ष हैं।
 
                                          फिल्म का सबसे सबल पक्ष फिल्म की यूनिक विषय वस्तु है- लौंडा कलाकार का जीवन। अभिनव ठाकुर की तीसरी फिल्म ” द लिपस्टिक बॉय” एक साधारण कलाकार के साधारण जीवन की असाधारण कथा कहने का प्रयास करती है। फिल्म का उदय एक लौंडा नाच कलाकार है, जो केवल पैसे के लिए नाच नहीं करता है बल्कि इसमें उसे खुशी मिलती है। फिल्म एक पत्रकार के उदय के पास आने से शुरु होती है और फिल्म इस कटु उक्ति से आरंभ होती है कि पब्लिक को “ लौंडा दो ही समय अच्छा लगता है एक स्टेज पर नाचता और दूसरा ………….” और इस रिक्त स्थान में शारीरिक और मानसिक शोषण को रखा जा सकता है। शाब्दिक हिंसा पर निर्देशक नहीं रुकता है और उदय की कथा का पहला दृश्य ही है कि उदय एक राजनीतिक नेता के शारीरिक शोषण से बदहवास भींगता लौट रहा है। इससे आहत होकर अपने बचपन के दोस्त और पत्नी के आग्रह पर लौंडा नाच और रंगमंच छोड़ कर पान की दुकान खोल सामान्य जीवन जीना शुरु करता है। एक दिन अचानक उसके जीवन में रंगमंच का साथी कमल फिर से आता है और कहता है “कलाकरी का कीड़ा पीछा नहीं छोड़ेगा… मर जाओगे चूना कत्था लगाते-लगाते” और यह कहकर कमल उदय को वापस मंच पर लाता है। और वह पत्नी की दी कसम को तोड़कर हर रात को छिप-छिपकर नाच का अभ्यास करने जाता है। पर एक सुबह राज खुल जाता है। कलाकार, घर और समाज के इस द्वंद्व में ही फिल्म की असली कथा है।
फिल्म के कुछ दृश्य एक अच्छा बिंब और प्रतीक की तरह मन में छप गये। मुँह में घुँघरू डालकर रेप करना और बाद में सांकेतिक विरोध के रुप में कलाकार के द्वारा मुँह में घुँघरू डालकर नाच करना, एक अच्छा बिंब और प्रतीक दोनों एक साथ है। एक दृश्य कलाकार का मेडल वाले कमरे का है, जिसमें उदय अपनी वेदना में सारे मेडल को पहन रहा है और रो रहा है। कभी कलाकार के लिए आनंददायक रहा मेडल ‘अश्वत्थामा के मणि वाले जख्म’ के समान हो जाता है –
 
“जीवित रहना, माथे पर मणि धारण करना
वधिक अश्वत्थामा का, यातना यह वह है” – 107
“शाप दिया उसको
कि जीवित रहेगा वह
लेकिन हमेशा जख्म ताजा रहेगा-”100
(स्रोत:4, अंधायुग, धर्मवीर भारती, किताब महल, 1954: अष्टम संस्करण -1974.)
 
                                                 एक दृश्य जिसमें रात को पत्नी उदय से संवाद स्थापित करने का प्रयास करती है, उदय करवट बदल देता है और कैमरा लोटा पर उल्टा रखे गिलास पर खत्म होता है। यह दृश्य अपने आप में यह बात स्थापित करने में सक्षम था कि उदय की रुचि स्त्री से अधिक पुरुष में है। फिल्म के इन दृश्यों के लिए निर्देशक अभिनव ठाकुर की प्रशंसा की जा सकती है।
 
                                           फिल्म की सिनेमेटोग्राफी बॉलीवुड के स्टैंडर्ड के अनुकूल है और इस लिहाज से वेलमेड फिल्मांकन है। परंतु प्रथम दृश्य में जब पत्रकार उदय के घर आती है, उस दृश्य को छोड़कर सारे फिल्म में छायांकन स्थानीय लैडस्केप और लोकैल को कैप्चर करने में असफल रहा। उपर वर्णित कुछ दृश्यों को छोड़ कर फिल्म कलात्मक दृश्यांकन से दूर ही रही है। इन चीजों को छोड़ दिया जाये तो इस फिल्म का फिल्मांकन एक स्तरीय प्रोडक्शन है।
 
                                               इसका एक और सबल पक्ष फिल्म का सांउंड डिजाइन है, जो एक स्तरीय ध्वनि प्रभाव छोड़ता है। हाँ , आवाज की डबिंग के कारण कहीं-कहीं अभिनेता से मिसमैच हो रहा था। जैसे बैंड मास्टर Bijyendra Tank का स्तरीय अभिनय भी उनकी आवाज के बिना जँच नहीं रहा था। स्थानीय भाषा के गानों का उचित इस्तेमाल विषय के अनुकूल था।
 
                                                 ऐसा लगता है कि “द लिपस्टिक बॉय” के उदय के रुप में Manoj Patel “लौंडा” कलाकार के बारे में सब कुछ जानता है, इसके पीछे उनका रंगकर्म का अनुभव है। दरअसल मनोज पटेल संजय उपाध्याय के निर्देशन में भिखारी ठाकुर लिखित बिदेसिया में लौंडा नाच और अभिनय का लंबा अनुभव रखते हैं। इसलिए मनोज पटेल केवल लौंडा नाच में ही कुशल नहीं है , बल्कि लौंडा नाच के पीछे सांस्कृतिक इतिहास और भावना को अनुभव किया है, जिसे भिखारी ठाकुर हमारी जीवन शैली और पहचान की अभिव्यक्ति कहते हैं। इसी का परिणाम है कि मनोज पटेल ने लौंडा कलाकार के तन और मन को फिल्म में प्रामाणिकता के साथ निभाया है।
 
                                              ये सब फिल्म के सबल पक्ष थे। अब बात करते है कि क्यों अभिनव ठाकुर की ” द लिपस्टिक बॉय” ‘अछूत कलाकार लौंडा’ ” के असाधारण विषय पर अधारित होने के बावजूद एक असाधारण फिल्म नहीं बन पायी और अच्छे विषय पर एक खराब फिल्म होकर रह गयी ?
 
                                                    सबसे पहले फिल्म की शुरुआत ही अनियोजित थी। फिल्म की शुरुआत ही नेता द्वारा कलाकार के शारीरिक शोषण से होती है, वह नेता कलाकार के घुंघरू को कलाकार के मुँह डालकर उसकी आवाज को बंद कर बलात्कार करता है और फिल्म में यह दृश्य बार-बार आता रहता है….यहाँ पर यह फिल्म लौंडा कलाकार के जीवन के बदले कलाकार के शोषण की फिल्म में बदल जाती है। यहाँ दो समस्याएँ है। पहली समस्या यह है कि इस दृश्य में फिल्म अपने चरम भावना पर पहुँच जाती है और दर्शक फिर कभी उससे अधिक रोमांच का अनुभव नहीं कर पाता और इसलिए एक मनोवैज्ञानिक कमी पूरे फिल्म में बनी रहती है। यही समस्या Game of Thrones 2011 के 9वें एपिसोड में नेड स्टार्क के मृत्युदंड से उत्पन्न हुई और वैसा रोमांच बाद के सातों सीजन और 65 एपिसोड में कभी महसूस नहीं हो सका। उस चरम को 29वें एपिसोड में नेड स्टार्क के बेटे, उसकी नई दुल्हन और पत्नी सबके नरसंहार से रचने का प्रयास किया गया, मगर वह जादू दोबारा नहीं हो सका। इस फिल्म में भी रेप सीन के बाद दर्शक कभी उस स्तर तक नहीं पहुँच पाया। पत्नी के छोड़ के जाने पर मेडल वाले कमरे का विषद विलाप या अंत में नाचते हुई मृत्यु भी दर्शक को उस स्तर तक नहीं ले जा पाई। दूसरी समस्या इस फिल्म के क्लाइमेक्स में है। जैसा कि ग्रीक नाटकों में होता कि “The typical three-act structure of tragedy is still discernible in many Greek plays, even if it is not always rigidly followed. The first act introduces the characters, their situation and their conflict; the second act develops the conflict, often through a series of crises and reversals; the third act reaches a climax and resolution, leading to the downfall of the tragic hero or heroes.” (स्रोत:5, p. 25, The Art of Greek Tragedy ,Oliver Taplin , Routledge in 2003) इस फिल्म के क्लाइमेक्स में उसी बलात्कारी नेता के सामने उदय नाचते- नाचते मर जाता है। यह दर्शक को संतुष्ट नहीं कर पाता। और क्या कोई सच्चा कलाकार अपने बलात्कारी के सामने नाच सकता है ? अगर हाँ….तो यह समय पतन का है। समय कितने करवट ले चुका है ! लाल किले पर कवि सम्मेलन में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू मुख्य अतिथि थे और पंडित नेहरू के कदम सीढ़ियों पर चढ़ते समय डगमगा गये और दिनकर ने उनका हाथ पकड़कर पंडित नेहरू को संभाल लिया। इसके बाद पंडित नेहरू ने दिनकर से कहा – धन्यवाद दिनकर जी आपने मुझे संभाल लिया…इसके जवाब में दिनकर ने जो कहा, वह एक इतिहास बन गया। रामधारी सिंह दिनकर ने कहा कि इसमें धन्यवाद की कोई बात नहीं है नेहरू जी…राजनीति जब-जब लड़खड़ाती है, साहित्य उसे ताकत देता है। संदर्भ से स्पष्ट है कि भारतीय समाज में एक कलाकार के आत्मविश्वास में पाताली पतन हो चुका है। यहाँ यह दृश्य लाजवाब है कि अपराधी नेता के सामने विरोध में मुँह में घुँघरू लेकर नाच करती है और मजे की बात है कि अपराधी नेता को अपना कुकृत्य याद आ जाता है और वह असहज होता है। पर यथार्थ में ऐसा नहीं होता है और उसे कोई ग्लानि नहीं होती ….जैसा इस फिल्म में दिखाया गया है। बल्कि अपराधी नेता इसे अपने फैंटेसी के पूर्ण होने रुप में लेता कि उसके मर्दाना ताकत के डर से किसी को दिल का दौरा पर गया।
रेप के बाद उदय को बीमार समझ उसके दोस्त के दवा लाने पर उदय कहता है कि हर रोग दवा से नहीं ठीक होता है। समाज ऐसी कई चीज़ें रोग की तरह हैं, जिनका इलाज के लिए सीधे-सीधे कोई दवा नहीं है कि जिसे खाया और अगले दिन ठीक हो गया एवं इसी तरह का रोग लौंडा नाच के प्रति समाज की मानसिक बीमारी और पूर्वाग्रह है।
अब सवाल है कि परिवार और समाज के लौंडा नाच के प्रति बीमार मानसिकता और हीन दृष्टिकोण के बाद भी कोई लौंडा कलाकार क्यों बनना चाहता है? जैसा कि भिखारी ठाकुर ने कहा कि “लौंडा नाच सिर्फ एक नृत्य रूप नहीं है, बल्कि यह हमारे समाज का एक प्रतिबिंब है। यह जीवन शैली, हमारी संस्कृति का उत्सव और हमारी पहचान का अभिव्यक्ति है।” होली जैसे उत्सव में पुरुष ‘जानी’ के लौंडा नाच और जोगिरा की सामाजिक स्वीकार्यता थी । इसे भारतीय समाज में पुरुष के अंदर की स्त्रैणता का समाज में सार्वजनिक स्वीकार्यता के रुप में देखा जा सकता है। भोजपुरी श्रमजीवी लोक में भिखारी ठाकुर के लिए कहा भी जाता है–
 
“नाम भिखारी रहे, मगर स्वभाव से रहे राजा,
अपने करम से फहरा दिहे रहे, जवन भोजपुरी के धाजा”।
(धाजा का मतलब ध्वज यानी झंडा। )
(स्रोत: – 6, ,Nach bhikadi nach , Jainendra Dost-Shilpi Gulati, 2019)
 
लौंडा नाच के जन्म की अपनी कहानी है ।भारत में आरंभिक अभिनेता ‘अप्सरा’ मानी जाती है, जो स्त्री थीं।
अप्सरो नाम देवानां तनूभिर्विविधैर्वृत्तिभिः।
नट्यं लोके करोत्येषा तेनैव विश्वमुच्यते॥
अर्थात् अप्सराएं देवताओं की नृत्यकार हैं, जो विभिन्न शरीर आकृतियों और गतिविधियों के साथ उपस्थित होती हैं। उनके नृत्य से यह सृष्टि सुंदर बनती है।(स्रोत: -7, श्लोक-25, अध्याय- 25 , भरतमुनि, नाट्यशास्त्र , प्रथम भाग , काशी हिंदू विश्वविद्यालय मुद्रणालय, 1971) बाद में सामंतवाद के उदय के साथ महिलाओं का मंच पर जाना निषिद्ध हो गया। ऐसे में नाटकों में स्त्री पात्र को भी पुरुष करने लगे। इस तरह ‘लौंडा’ और ‘लौंडा नाच’ का अविष्कार हुआ। इसके पीछे आर्थिक कारण भी था। वह यह कि मध्यकाल में कुलीन और अमीर लोगों के लिए कोठे थे। लौंडा नाच आम आदमी के मनोरंजन का माध्यम बना। यही वजह रही कि लौंडों का चुनाव आम श्रमजीवी और निम्न जातियों से हुआ। (स्रोत: -8 , पद्मश्री रामचंद्र मांझी : नाच हऽ कांच बात हऽ सांच, फारवर्ड प्रेस, जनार्दन गोंड October 17, 2022 , www. forwardpress .in/2022/10/news-bhikhari-thakur-ramchandra-manjhi/)
 
पर धीरे लौंडा शब्द गाली बन गया। लौंडा शब्द पर रामचंद्र मांझी कहते थे– “लौंडा एक बुरा शब्द है, गाली है।”(स्रोत: -9, लखी चंद मांझी,Nach bhikadi nach , Jainendra Dost-Shilpi Gulati, 2019) स्पष्ट है कि लौंडा की दुर्दशा के कारण समाज के यथार्थ और राजनीति में हैं। इसके पीछे तीन तरह के कारण काम कर रहे हैं। पहला यह है कि स्त्री संस्कार से संस्कृत होते ही पुरुष लौंडा का शोषण और प्रताड़ना स्त्री की तरह ही समाज द्वारा होने लगा। दूसरा यह कि तथाकथित उच्च जाति के लोगों ने इस शब्द को लैंगिक और जातिगत भेदभाव की मानसिकता के कारण एक गाली बना दिया। तीसरा कारण 1857 के विद्रोह से जुड़ा है और 1857 के बाद की ब्रिटिश साम्राज्यवादी राजनीति से भी जुड़ा है। ईस्ट इंडिया कंपनी के शुरुआती दिनों में अंग्रेजों के लिए अपने सामाजिक समारोहों में नृत्य करने के लिए तवायफ का होना बहुत सामान्य बात थी। 1857ई के बाद यह बात बदल गयी। 1857 विद्रोह की ब्रिटिश जांच में दी गई गवाही में तवायफ अज़ीज़ुनबाई को विद्रोह के दौरान उन्हें “घोड़े की पीठ पर पदकों से सजे पुरुषों की पोशाक में, पिस्तौल की एक पट्टी से लैस” भी देखा गया था। तवायफ के कोठे 1857 का सूचना केंद्र के रुप में काम कर रहे थे। ‘Contagious Diseases Act’ को 1864 में ब्रिटिश इंडिया में पारित किया गया था। इस अधिनियम का उद्देश्य ब्रिटिश सैनिकों और तवायफ के संपर्क को तोड़ना था। फिर Salvation Army in India 1892 से बनी, जिसका उदेश्य नाच-विरोध, तवायफ विरोध था। इसके प्रभाव से प्रेमचंद भी नहीं बच पाये और इसी संदर्भ का से उनके 1919 ई के “सेवासदन” उपन्यास को देखा जा सकता है जिसमें सुमन गरीबी और सामाजिक दबावों के कारण वेश्या बन जाती है और वह इसी तरह के Salvation Army से बचा ली जाती है। उनकी नजर में इस पेशे में खराब लोग ही थे “जिस तरह से जहाज़ जहाज़ के पास जा कर खंडहर हो जाते हैं, उसी तरह से यहाँ (वेश्यालय में) सभी लोग एक समान हो जाते हैं। कोई जीने के लिए अपना शरीर बेचता है और कोई अपने हाथों से जीता हुआ रोटी भी नहीं खाता।” (स्रोत: -10, सेवासदन, प्रेमचंद राजकमल प्रकाशन,2016.) इसी कारण से नाच , कथक नृत्य, ठुमरी, गजल और दादरा, सभी गंभीर दबाव में थे। इन घटनाओं की जटिल श्रृंखला घटित हुई थी जिसने तवायफ परंपरा को खत्म ही कर दिया और इन पेशों से लगे लोगों को रंडी के रुप में कुप्रचारित किया जाने लगा। यह इतिहासबोध और समाज-बोध फिल्म में गायब है।
 
                                      लौंडा नाच भले ही होली के जोगिरा से धीरे-धीरे गायब हो रहा है, मगर एक व्यवसाय के तौर पर अब भी उत्तर बिहार की शादियों में दिखता है। फिल्म के तिलक वाले सीन में यह है भी, मगर लौंडा नाच और दर्शकों के बीच की उत्तेजना शो की कोरियोग्राफी और वेशभूषा से गायब है। फिल्म में लौंडा नाच में काम करने वाले प्रकाश, निर्देशक भीड़ के व्यवहार जैसे विवरणों को दरकिनार कर दिया गया है।
 
                                               यह आवश्यक नहीं है कि हर लौंडा कलाकार समलैंगिक भी हो। मगर फिल्म में दोनों मुख्य लौंडा कलाकार कमल और उदय नाच को भूलकर आपसी गे रिलेशन में चले जाते हैं। यह भी एक अच्छी कहानी हो सकती है, मगर फिल्म के कथानक में इसका योगदान नहीं है और इस एंगल का पूरा उपयोग नहीं किया गया है। एक दृश्य जिसमें रात को पत्नी उदय से संवाद स्थापित करने का प्रयास करती है, उदय करवट बदल देता है और कैमरा लोटे पर उल्टा रखे गिलास पर खत्म होता है। यह दृश्य अपने आप में यह बात स्थापित करने में सक्षम था कि उदय की रुचि स्त्री से अधिक पुरुष में है। परंतु पत्नी से यह कहवाना कि मुझे कोई सुख नहीं है, इतने सक्षम दृश्य के बाद अनावश्यक था। यहाँ पर एक एंगल यह भी था कि अगर उदय गे है , तब वह पत्नी के साथ क्यों है ? यहाँ पर ऑस्कर वाइल्ड का जीवन प्रासंगिक है। ऑस्कर वाइल्ड के अनेक युवकों से प्रेम-सम्बंध रहे थे और उन्होनें कुलीन महिला से शादी भी की थी और उनके बच्चे भी थे। 1881 में वाइल्ड जॉन ग्रे नामक एक युवा कवि से मिले। जो उनसे बारह साल छोटा था। उन दोनों की अंतरंगता 1892 तक चली, जब ग्रे ने कैथोलिक धर्म में शरण ली, ऑस्कर को छोड़ दिया। कहा जाता है कि यही जॉन ग्रे ‘द पिक्चर ऑफ़ डोरियन ग्रे’ की प्रेरणा बने थे। उन पर पुरुषों के साथ ‘ग्रॉस इंडीसेन्सी’ के आरोप में मुक़दमा शुरु हो गया। उन्हें दो साल की सजा हुई, उनका चमकदार लेखकीय जीवन तबाह हो गया। जेल जाने के बाद ऑस्कर कभी अपने बच्चों से नहीं मिल पाए, उन्हें चुपचाप पेरिस निकलना पडा। उनकी पत्नी ने अपने बच्चों का नाम तक बदल दिया था, उन्हें समझा दिया था कि उनका वाइल्ड से कभी कोई संबंध नहीं था। पेरिस में खुद वाइल्ड नाम बदल कर, ‘सेबेस्टियन मेलमोथ’ के नाम से रहते थे। उस समय उनके पास कोई मित्र नहीं था। यदि कुछ था तो सिर्फ सघन अकेलापन और पिछले सम्मानित जीवन की स्मृतियों के बचे टुकड़े। स्पष्ट है कि ऑस्कर वाइल्ड की तरह फिल्म का उदय भी गे है , मगर सामाजिक प्रतिष्ठा के दवाब में नकली शादी के संबंध में है और यह दोहरापन उसके कला के भी प्रभावित कर रहा था। केवल इस एंगल से भी एक मजेदार फिल्म हो सकती थी, जिसमें कलाकार के कला-जीवन और व्यक्तिगत जीवन के का द्वंद व्यक्त हो सकता था। मगर यह प्रसंग फिल्म में बस एक गाने भर के लिए आता है और हमें खेत में घुमा कर दुबारा फिल्म में कभी नहीं आता है। DDLG के शाहरुख के सरसों के खेत का आईकॉनिक दृश्य का अपना प्रभाव हो….मगर अपने बिहार में प्रेमी के साथ खेत में जाना जाने का विशेष अर्थ होता है। हमारे क्षेत्र में खेत प्रेमी जोड़ा के लिए आदिकाल से फ्री OYO का काम करता रहा। इन कलाकारों की इज्जत उनकी पत्नियां तक नहीं करती थीं और इसलिए वे नाच के बाद सारा मेकअप पोंछ-पाछ कर ही घर आते थे। लौंडा नाच के कलाकार स्वयं अपनी नजर में भी हीन थे। इन संदर्भों को मिलाकर अच्छी फिल्म हो सकती थी, मगर इन संदर्भों फिल्म में पुरा दोहन और उपयोग नहीं हुआ। बिना संदर्भों के ये प्रसंग लौंडा कालाकार के चरित्रहीनता होने के पूर्वाग्रह को सत्यापित करता है। ये अनगाईडेड प्रसंग ही इस फिल्म को लौंडा कलाकार का विरोधी फिल्म बनाता है।
                                               यह फिल्म हमेशा कलात्मक और व्यवसायिक होने के बीच झूलती रहती है। कलाकार का रेप और रेपिस्ट के सामने नाचना टिपिकल 70-80 के दशक के फिल्म की याद दिलाती है, जिसमें विलेन को मारने से पहले नायक और नायिका विलेन को सुंदर नृत्य का सुख दे रहे होते हैं। रेपिस्ट के सामने नाचते-नाचते मर जाना एक कला फिल्म के क्लाइमेक्स की तरह है। मगर बीच- बीच में बैंड मास्टर के कर्मचारी के रुप में दिलफेंक आशिक का कॉमेडी उत्पन्न करने का प्रयास फिल्म कथा में व्यवधान की तरह था और काफी चीप प्रयास था। अभिनव ठाकुर की पहली फिल्म ‘यह सुहागरात इम्पॉसिबल’ में भी पवन और उसका कम हाईट वाला दोस्त है, जो सस्ती कॉमेडी करता है।
 
                                                     पूरे फिल्म में एक दिशाहीनता दिखती है।फिल्म “द लिपस्टिक बॉय” यह भी तय नहीं कर पा रहा कि यह नालंदा के रंगकर्मी कुमार उदय सिंह का बायोपिक फिल्म है या लौंडा कलाकारों की सामूहिक कहानी है। अगर यह बायोपिक है , तो इसमें सस्ती कॉमेडी क्यों है या अगर यह सामूहिक कहानी है तो कलाकार का सामाजिक यथार्थ और विविधता क्यों गायब है। हर लौंडा कलाकार का परिवार फिल्म के उदय की तरह नहीं है…ऐसी भी पत्नियाँ हैं जो अपने लौंडा कलाकार पति का नाच के लिए मेकअप स्वयं करती हैं और नाच के बाद मंच पर जाकर गर्व और मुस्कराहट के साथ साथ खड़ी रहती हैं। डार्क से डार्क फिल्म के अपने ह्यूमर और उजालेवाले पल होते है जो कहानी को विविधता और संपूर्णता के साथ जीवन के समकक्ष और जीवने जीवन से पार तक ले जाते हैं। “द लिपस्टिक बॉय” कलाकार की यातना से शुरू होती है और यातना के यथार्थ की संपूर्णता में जाने में असफल रहती है; अभिनव ठाकुर और कास्ट एक यथार्थवादी विषय पर बेहद अयथार्थवादी कहानी कहते हैं। यह फिल्म लौंडा कलाकार के आम जीवन के संघर्ष से भटक कर शारीरिक शोषण में उलझ कर रह जाती है और उसे भी अंजाम तक नहीं ले जा पाती है। फिर शारीरिक शोषण की कथा छोडकर कलाकार और पत्नी के द्वंद्व में उलझ जाती है। फिर पत्नी के लिए नाच छोड़ने वाला पत्नी को छोडकर मित्र के साथ गे रिलेशन में चला जाता है। फिर वह गे दोस्त उसके सम्मान समारोह में नहीं होता और उसके मरने के बाद भी नहीं आता , बल्कि आती है घर छोड़कर जा चुकी पत्नी। पत्रकार को भी उस समारोह में इस तरह बुलाया गया था कि जैसे उसके जीवन की समस्याओं का अंत हो गया है या यह एक सार्वजनिक आत्महत्या थी। और क्या एक सरकारी सम्मान मिल जाने भर से कलाकार संतुष्ट हो जायेगा? तिरस्कृत कलाकारों पर और कई अच्छी फिल्में हैं, जिनसे सीखा जा सकता था । स्टीवन सोडरबर्ग की 2011 की फिल्म मैजिक माइक पुरुष strip dancer (A stripper or exotic dancer is a person whose occupation involves performing striptease in a public adult entertainment venue such as a strip club.) की एक ऐसी दुनिया में ले जाती है , जो हमारे लिए अनदेखा थी और पुरुष strip dancer के वास्तविक जीवन की छोटी-छोटी ख़्वाहिशों को एक साथ मनोरंजन और कलात्मकता ढंग से हमारे सामने रखती है एवं उनके जीवन में हमारी रुचि को सकारात्मक और शिक्षित करती है।दूसरा उदाहरण मुजफ्फर अली की 1981 की “उमराव जान” है, जो लौंडा कलाकार की तरह तिरस्कृत तवायफ संस्कृति के विषय पर सक्षम और सफल बॉलीवुड फिल्म है, जो मिर्ज़ा हादी रुस्वा द्वारा लिखी गई उर्दू उपन्यास “उमराव जान अदा” पर आधारित है । इस फ़िल्म को उस समय के वातावरण को व्यक्त करने के लिए, उसकी प्रमाणिक कॉस्ट्यूम और संगीत के लिए जाना जाता है, खासकर “दिल चीज़ क्या है” और “इन आँखों की मस्ती” गीत। यह एक नाटकीय फ़िल्म थी जो कि समीक्षकों द्वारा सराही गई थी और कमर्शियल रूप से भी सफल रही।
 
                                         अभिनव ठाकुर का ” द लिपस्टिक बॉय” लौंडा कलाकार के बारे में समाज के सारे पापुलर पूर्वाग्रह कि कलाकार दुष्चरित्र होता है, परिवार के प्रति गैर जिम्मेदार होता है आदि को सही दिखाता है और इन अर्थो में यह फिल्म लौंडा कलाकार के खिलाफ जाती है। इस फिल्म को देखकर पॉल वेरहोवेन् (Paul Verhoeven) की 1995 ई. की “शोगर्ल्स” फिल्म की याद आती है, जो असली एक्जॉटिक डांसिंग की दुनिया के यथार्थ को दिखाने में असफल रही थी। “It’s difficult to think of a more mean-spirited, unpleasant film than Showgirls. From start to finish, it’s an exercise in bad taste and poor judgment, with no redeeming qualities to speak of.” अर्थात “शोगर्ल्स” से और ज्यादा गलत भावना से भरी और अप्रिय फिल्म के बारे में सोचना मुश्किल होता है। शुरुआत से अंत तक यह खराब स्वाद और खराब निर्णय की एक अभ्यास है जिसमें गुणवत्ताओं की कोई बात नहीं है।” As bad as the first ninety minutes of this film are, the last thirty are worse. The closing quarter of Showgirls is distasteful in every way — from its gratuitous violence to its illogical plotting. The final scenes are intended to teach something about ethics, but that’s a hypocritical stance for a motion picture without a moral compass. “इस फिल्म के पहले निन्यानवे मिनट जितने खराब हैं, उससे भी बदतर हैं अंतिम तीस मिनट। ‘शोगर्ल्स’ का अंतिम तिहाई भाग हर तरह से अप्रिय है – इसमें उत्तेजक हिंसा से लेकर असमझी योजना तक सब कुछ है। अंतिम दृश्य नैतिकता के बारे में कुछ सिखाने के इरादे से हैं, लेकिन यह एक ऐसी फिल्म के लिए जो कि कोई नैतिक मूल्यांकन नहीं करती, यह दोगली स्थिति है।” ( स्त्रोत-11, “Showgirls” by James Berardinelli , www. reelviews. net/reelviews/showgirls) इसी तरह कोई भी लौंडा नाच विरोधी इस फिल्म को दिखा कर कह सकता है कि इसलिए लौंडा कलाकार होना गलत है। इस असफलता के मूल में लौंडा कलाकार के जीवन पर सास्कृतिक, भावनात्मक और ऐतिहासिक शोध का अभाव है । दूसरा कारण यह कि फिल्म के स्क्रीनप्ले में उदय के उपलब्ध जीवन के भी द्वंद्व का उपयोग काफी नीरस रुप से और बिना रोमांच के किया गया है और पहले कुछ दृश्यों के बाद ही दर्शक फिल्म में अपना इंटरेस्ट खो देता है और यह फिल्म अपने मूल उद्देश्य प्राथमिक मनोरंजन में भी असफल रहती है। अगर उपलब्ध शोध पर एक अच्छा स्क्रीनप्ले होता , तब हमारे समाने अलग तरह का “द लिपस्टिक बॉय” होता ।
 
                                                         अंत में यह कि “नृत्य आत्मा का द्वारा है ” इस आधार वाक्य से शुरु फिल्म होती है , जो TIME magazine के अनुसार “Dancer of the Century,” Martha Graham के इस बात से मिलती है कि ” The body says what words cannot. Dance is the hidden language of the Soul” ( स्रोत-12, पेज-8 and 163, Martha Graham, “Blood Memory: An autobiography, Doubleday , 1991.) और यही बात भिखारी ठाकुर ने कही थी, – “नाच ह कांच, बात ह सांच, एह में लागे ना सांच” अर्थात नाच दर्पण की तरह है , सच्ची बात कहता है…। अभिनव ठाकुर ने इस अच्छे intentionसे फिल्म बनाना चाहा,मगर यह फिल्म लौंडा कलाकार की आत्मा के सच को कहने में असफल रही है क्योंकि अच्छे काम के लिए केवल अच्छा intention काफी नहीं होता। वैसे उम्मीद है कि अभिनव ठाकुर अपनी तीनों फिल्म के अनुभव से सीखकर भविष्य में बेहतर फिल्म बना पाएँगे क्योंकि अपनी गलतियों से सीखने में ही कलाकार की सीमाओं में विकास की संभावना होती है और एसे ही ऐसी ही उम्मीदों से दुनिया कायम है ।
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समाप्त
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स्रोत -सूची
 

1, लखी चंद मांझी,Nach bhikadi nach , Jainendra Dost-Shilpi Gulati, 2019

2.Nach Bhikadi Nach, Jainendra Dost-Shilpi Gulati, 2019
3, “Bhikhari Thakur and Launda Naach” लेखक: कमलेश पांडेय, प्रकाशित हुआ The Wire पर 30 अगस्त, 2020
4.अंधायुग, धर्मवीर भारती, किताब महल, 1954: अष्टम संस्करण -1974.
5, p. 25, The Art of Greek Tragedy ,Oliver Taplin , Routledge in 2003
6,Nach bhikadi nach , Jainendra Dost-Shilpi Gulati, 2019.
7, श्लोक-25, अध्याय- 25 , भरतमुनि, नाट्यशास्त्र , प्रथम भाग , काशी हिंदू विश्वविद्यालय मुद्रणालय, 1971
8.पद्मश्री रामचंद्र मांझी : नाच हऽ कांच बात हऽ सांच, फारवर्ड प्रेस, जनार्दन गोंड October 17, 2022 , www. Forwardpress .in/2022/10/news-bhikhari-thakur-   
     ramchandra-manjhi/
9.लखी चंद मांझी,Nach bhikadi nach , Jainendra Dost-Shilpi Gulati, 2019
10.सेवासदन, प्रेमचंद राजकमल प्रकाशन,2016.
11.“Showgirls” by James Berardinelli , www. reelviews. net/reelviews/showgirls
12 पेज-8 and 163, Martha Graham, “Blood Memory: An autobiography, Doubleday , 1991.

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