उत्तरा बावकर : रंगकर्मी का एक शोकगीत

उत्तरा बावकर : रंगकर्मी का एक शोकगीतकृष्ण समिद्ध

Captain! my Captain! our fearful trip is done”
 
कल जब मैं उत्तरा बावकर की शोकसभा में था , तब वाल्ट व्हिटमैन की कविता ” O Captain! my Captain” की यह पंक्ति बार-बार मन में आ रही थी। 1865 में अब्राहम लिंकन की हत्या के बाद यह पंक्ति वाल्ट व्हिटमैन ने लिखी थी। शोकगीत या Elegy कविता की एक लंबी परंपरा है, जिसमें कवि अपने प्रिय की मृत्यु पर कविता लिखता है। जैसे निराला की सरोज –स्मृति –
 
दूःख ही जीवन की कथा रही, / क्या कहूँ आज, जो नहीं कही! (स्रोत -1)
 
भारतीय साहित्य की पहली कविता पंक्ति एक शोकगीत ही है –
 
“मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः ।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम् ।।” (स्रोत -2)
 
                             मेरी समझ में इन शोकगीत की परंपरा के मूल में मृतक के प्रति प्रेम ही होता है, अत: शोकगीत मूलतः प्रेमगीत ही होते हैं। इन अर्थों में उत्तरा बावकर की शोकसभा के मूल में एक रंगकर्मी का दूसरे रंगकर्मी का प्रेम ही है। यहाँ प्रश्न यह है कि एक कवि के लिए शोकगीत लिखना अपनी तमाम व्यक्तिगत पीड़ा के बावजूद शब्दों में संभव है और सहज भी है। पर एक रंगकर्मी का शोकगीत कैसा हो ? यह Elegy या शोकगीत लिखने से अधिक कठिन होगा और यह कठिन काम कैसे होगा, इसका उत्तर मेरी समझ में उत्तरा बाओकर के जीवन के रचनात्मक संकटों और निर्णयों में है।
 
                              उत्तरा बावकर के जीवन का पहला रचनात्मक संकट 1965 में आया, जब उन्हे संगीत और नाटक में एक को चुनना पडा। उत्तरा बावकर को अभिनय में नहीं संगीत में रुचि थी, उनका आदर्श लता मंगेशर थी और वैसा ही बनने की इच्छा थी। उत्तरा बावकर 1965 में NSD में आईं और उनका इस तरह से नाटक में आना संयोग मात्र था। उत्तरा बाओकर के शब्दों में “अचानक एक मोड़ था, जिसके बारे में मैंने कभी नहीं सोचा था। ”( स्रोत- 3) वो गाती थी और संगीत में ही कुछ करना चाहती थी। मोहल्ले के गणेश उत्सव में एक सज्जन वेलनकर ने सुना और अपनी नाटय संस्था देववाणी से जोड़ लिया। देववाणी संस्था के तहत रेडियो के लिए संस्कृत संगीत नाटक करती थी। दिल्ली में संस्कृत के विद्वानों का सम्मेलन होने वाला था और इब्राहिम अलकाजी को उसमें संस्कृत में अभिज्ञान शांकुतलम करना था। इसलिए देववाणी के संस्कृत संगीत नाटक के काम के कारण उत्तरा बावकर को इब्राहीम अलकाजी के साथ पहला नाटक करने का मौका मिला। इब्राहिम अलकाजी उत्तरा बावकर में नाटक की संभावनाओ को देखकर NSD में ले आये और तब उत्तरा बावकर को पहली बार पता चला कि नाटक सिखाने वाली कोई संस्था भी है। उत्तरा बावकर के माता-पिता ने भी सोचा संगीत के साथ नाटक सीख लेगी , तो महाराष्ट्र के संगीत नाटक में काम कर सकेगी। मगर NSD में आने के बाद धीरे-धीरे संगीत छूट गया और रंगमंच ही उनकी दुनिया हो गयी। संगीत को छोड़ना यह पहला रचनात्मक निर्णय था और संगीत को छोड़ने का अफसोस भी उतरा बावकर को जीवन भर रहा। ( स्रोत- 4 )
 
                                  उत्तरा बावकर के जीवन में दूसरा रचनात्मक संकट आया, जब उत्तरा बावकर को Fritz Bennewitz के नाटक थ्री पेनी आपेरा में पोली पीचम का चरित्र मिला। Fritz Bennewitz ने ब्रेख्त वाले एलियेशन के साथ संवाद बोलने का निर्देश दिया। उत्तरा अपने 15 दिनों के हर प्रयास में असफल रही और कहा कि यह चरित्र मुझसे संभव नहीं है,आप इसे दूसरे से करवा लीजिए।( स्रोत- 5) Fritz Bennewitz ने कहा – नहीं, तुम्ही को करना है। Fritz Bennewitz ने संवाद को तेज रफ्तार से बोलने को बोला और फिर धीरे – धीरे संवाद का वह सुर मिला जिसमें एलियेशन भी था। इस प्रसंग से कई बातें सीखी जा सकती है। पर मुझे जो सबसे ज्यादा प्रभावित करता है, उत्तरा का यह कहना कि यह चरित्र मुझसे संभव नहीं है ,आप इसे दूसरे से करवा लीजिए।
 
                                       गाँधी (1982) फिल्म आने के बाद उत्तरा बावकर के जीवन में तीसरा रचनात्मक संकट आया। गाँधी (1982) फिल्म आने के बाद सारे मित्र पंकज कपूर, सुरेखा सिकरी,मनोहर सिंह, रणजीत कपूर आदि मित्र बंबई चले गये। ये सारे मित्र यूनिट की तरह थे और उनकी एक क्रियेटिव सामूहिकता थी जिसमें एक दूसरे की कमी को पहचान कर बताते और उसे दूर करने के रास्ते भी। गाँधी फिल्म में बा के चरित्र के लिए उत्तरा बावकर ने भी ऑडिशन दिया , मगर असफल रही थीं। सारे मित्र फिल्म में चले गये , परंतु वे अकेले रेपेरटरी में बनी रही। यह निर्णय उनके जीवन में नाटक की प्राथमिकता को दर्शाता है। पर मित्रों की क्रियेटिव सामूहिकता के बिना उनका मन नहीं लगा और एनएसडी रेपेरटरी 1986 में छोड़ने का निर्णय ले लिया। 1968ई में NSD पास करने के बाद से 18 सालों से लगातार रेपेरटरी में रहने के बाद छोड़ने का निर्णय कठिन था। उस समय के NSD के निर्देशक मोहन महर्षि ने NSD में voice training पढाने को राज़ी कर लिया। इस बीच टेलीविजन पर काम करने लगी थीं। बार –बार छुट्टी लेकर जाने से वो उन दोनों कामों में बाधा होने लगी। तब 1996ई में VRS लेकर बंबई में आ गयीं।
 
                                            रंगमंच से फिल्म के माध्यम में बदलाव के कारण उत्तरा बावकर के जीवन में चौथा रचनात्मक संकट आया। गोविंद निहलानी की 1988 की एक टेलीविजन फिल्म ‘तमस’ और मृणाल सेन की 1989 की ‘एक दिन अचानक’ में काम करने का अवसर मिला। परंतु गोविंद निहलानी और मृणाल सेन के साथ करते समय उनके पास एक डर था कि नाटक से फिल्म में आये अभिनेता की तरह लाउड न लगे और दोनों निर्देशक को उन्होने विशेष रुप से कहा कि जब भी वे ऐसा करती हों ,तो वे टोक दें। माध्यम रूपी रचनात्मक समस्या को प्रयास और अभ्यास कर समझा एवं दोनों फिल्म से उन्हें पहचान और सफलता दोनों मिलीं और ‘एक दिन अचानक’ के लिए सहायक अभिनेत्री का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला।
 
                                                सोप ऑपेरा का दौर आने के कारण उत्तरा बावकर के जीवन में पाँचवा रचनात्मक संकट आया। वे लगातार कई टेलीविजन सिरियल में ‘उड़ान’ , ‘जस्सी जैसा कोई नहीं’ में नजर आयीं और सफल थीं। इस सोप ऑपेरा का दौर में हर दिन सेट पर संवाद याद करने को मिलता और चरित्र की तैयारी के लिए समय नहीं दिया जाता। तब उन्होंने निर्णय लिया कि वे सोप ऑपेरा में काम नहीं करेंगी। (स्रोत- 6) फिर उन्होनें कई मराठी फिल्मों काम किया क्योंकि उनमें काम करने लायक चरित्र मिले।
अंत में वह दौर भी आया कि जब लगा कि अभिनेता के तौर पर उनके लिए करने के लिए कुछ नहीं बचा है और उत्तरा बावकर ने अभिनय को पूरी तरह से छोड़ दिया। यह छठा रचनात्मक संकट था। मेरिल स्ट्रीप ने अभिनय छोड़ने के समय को बताते हुए कहा है “मुझे लगता है कि जब आप डरे हुए और out of balance होते हैं, तब आप अपना सर्वश्रेष्ठ काम करते हैं। इस अवसर को समझें और उसका उपयोग करें। और अगर आप प्रत्येक बार सेट में पैर रखते हुए नहीं डरे हुए हैं और out of balance नहीं होते हैं, तो आप समझ जायें कि आप कुछ गलत कर रहे हैं। आपको retire हो जाना चाहिए क्योंकि आपको लगता है कि सीखने के लिए कुछ नहीं बचा है।” (स्रोत- 7) उत्तरा बाओकर की मृत्यु भले ही 12 अप्रैल 2023 को हुई है, मगर उत्तरा बाओकर ने एक अभिनेत्री के तौर पर काम पहले ही छोड़ दिया था अर्थात एक अभिनेत्री की तौर पर उन्होनें खुद को मृत कर लिया था। यह एक कलाकार की इच्छा मृत्यु थी। महाभारत के भीष्म की तरह हर कलाकार को अपनी कला की मृत्यु का उचित समय अवश्य पता होना चाहिए। एक अभिनेता डिनियल डे लेविस हैं, जिन्होंने फैंटम थ्रेड (2017) के पूरा होने के बाद अपनी सेवानिवृत्ति की घोषणा की। इससे पहले भी डे-लुईस ने द बॉक्सर (1997) में अपने प्रदर्शन के बाद तीन साल के लिए अभिनय से संन्यास ले लिया और इटली में जूता बनाने का एक नया पेशा अपनाया। उन्होंने 2000 में अभिनय में वापसी की और फिल्म गैंग्स ऑफ न्यूयॉर्क (2002) में स्कॉर्सेसे के साथ फिर से जुड़कर ऑस्कर पुरस्कार नामांकन प्राप्त किया। उन्होंने पॉल टॉमस एंडरसन का पीरियड ड्रामा ‘देयर विल बी ब्लड’ (2007) और स्टीवन स्पीलबर्ग की जीवनी नाटक ‘लिंकन’ (2012) के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का ऑस्कर पुरस्कार जीता। एक दशक के बाद, डे-लुईस ने ‘फैंटम थ्रेड’ (2017) के लिए एंडरसन के साथ फिर से काम किया, जिसके लिए उन्हें ऑस्कर पुरस्कार के लिए भी नामांकित किया गया था।इस फिल्म के पूरा होने के बाद फिर उन्होंने अपनी सेवानिवृत्ति की घोषणा की। इससे पहले भी उन्होंने 5 वर्ष का विराम लिया था और इस बीच बढ़ईगिरी का काम सीखा। हो सकता है, डिनियल डे लेविस अपनी इच्छा मृत्यु से वापस आये या नहीं।
 
                                                 कलाकार को पता होना चाहिए कि कहाँ उसे विराम लेना चाहिए और कहाँ काम करते रहना चाहिए। अन्यथा कलाकार का अवांछित कलासृजन उसकी कला को कमजोर करता है। अभिनेता में ईमानदारी आवश्यक है कि क्या उससे संभव है और क्या उससे नहीं संभव है। उसे अपनी सीमा की पहचान होनी ही चाहिए और फिर उस सीमा के विस्तार पर काम करना चाहिए। बात यह है कि केवल सदिच्छा ही लक्ष्य की प्राप्ति के लिए पर्याप्त नहीं होती है। इसे सिसिरो के जूलियस सीजर पर के विचार से समझा जा सकता है। “मैं स्वीकार करता हूँ कि वह ,जूलियस सीजर,एक महान व्यक्ति था, लेकिन वह गणतंत्र का विनाशक और एक तानाशाह भी था।जूलियस सीजर ने सत्ता को अपने लिए हथियाया और रोमन जनता की स्वतंत्रता को नष्ट किया, उसे हजारों मौतें मिलनी चाहिए थीं, अगर इतनी संख्या में मौतें संभव होतीं।” (स्रोत-8 ) सिसिरो जूलियस सीजर को योग्य मानता था, मगर उसके विचार में सीजर जैसे महान व्यक्तियों की देश की सेवा करने की क्षमता होती है, लेकिन कुछ समय के बाद वे देश की प्रगति के लिए एक बड़ी बाधा बन जाते हैं। इसलिए जब सीजर मारा गया था और सिसिरो को रिपोर्ट किया गया था, तो सिसिरो ने मैसेंजर्स को कहा, “रोमनों को बताओ, तुम्हारी स्वतंत्रता का समय आ गया है।” सीजर ने सभी स्वतंत्र विचार की सोच को दबा लिया था। इस अर्थ में सिसिरो सीजर के प्रभाव को रोम के लिए हानिकारक मानता था। हर आदमी का जीवन ‘रोमְ’ होता है और वह आदमी अपने जीवन रूपी रोम का ‘जूलियस सीजर’ होता है और इसलिए केवल सदिच्छा , योग्यता और लगातार प्रयास से सही लक्ष्य प्राप्त नहीं होता है। अंततः व्यक्ति या कलाकार को पता होना ही चाहिए कि कब उसे प्रयास करना है और कब उसे विराम लेना है और किन चीजों को पाने के लिए प्रयास करना है , किन चीजों को छोड़ देना है। उत्तरा गायक बनना चाह रही थीं और अभिनय के लिए उसे छोड़ दिया। फिर अभिनय में रंगमंच और सिनेमा दोनों में सफल रही , फिर सोप ऑपेरा का दौर आने पर टेलिविजन में अभिनय को छोड़ दिया। और अंतत: उत्तरा बावकर ने अभिनय को पूरी तरह से छोड़ दिया। उत्तरा बावकर ने कभी शादी नहीं की, संभवत: उनके जीवन में अभिनय के सिवा और किसी चीज के लिए स्थान नहीं था। यह अभिनय प्रति गंभीरता का उदाहरण है। और फिर जीवन में वह समय भी आया कि उन्हें लगा अब अभिनय में उनके लिए और अभिनय के लिए उनके द्वारा कुछ नया संभव नहीं है और उन्होने अभिनय छोड़ दिया। उतरा बाओकर के जीवन के ये निर्णय और साहस एक कलाकार के लिए हमेशा चुनौती के तौर पर रहेगें और हर कलाकार के जीवन में वह डर और out of balance उत्पन्न करता रहेगा, जो किसी भी कलाकार को अपने सर्वश्रेष्ठ रुप की सीमा के पार तक ले जायेगा। उचित से अधिक प्रयास कलाकार के लिए मृत्यु समान है, उससे पहले का विराम या इच्छा मृत्यु का चुनाव करना आवश्यक है। यही ईमानदारी एक कलाकार की कला की रक्षा करती है और यह कलात्मक ईमानदारी ही एक उत्तरा बावकर जैसी रंगकर्मी के लिए दूसरे रंगकर्मी का शोकगीत या सच्ची श्रद्धांजलि हो सकती है और कोई दूसरा आसान रास्ता नहीं है। और इस रास्ते ही है –
 
“Tomorrow to fresh woods, and pastures new.”
“कल ताज़ी लकड़ियों के लिए, और नए चरागाहों के लिए।” (स्रोत -9)
या
इस पथ पर, मेरे कार्य सकल
हों भ्रष्ट शीत के-से शतदल! (स्रोत- 10)
 
(समाप्त)
 
स्रोत
 
1.सूर्यकांत त्रिपाठी निरालासरोज-स्मृति – पृष्ठ 88 , निराला संचयिता, संपादक : रमेशचंद्र शाह, वाणी प्रकाशन , 2010.
2. वाल्मिकी, रामायण, बालकाण्ड, द्वितीय सर्ग, श्लोक १५- गीता प्रेस, 1975
3.Uttara Baokar, Irfan , Guftagoo with Uttara Baokar,YouTube•Sansad TV, 15-Jun-2017
4.Uttara Baokar, Irfan , Guftagoo with Uttara Baokar,YouTube•Sansad TV, 15-Jun-2017
5.Uttara Baokar, Irfan , Guftagoo with Uttara Baokar,YouTube•Sansad TV, 15-Jun-2017
6.Uttara Baokar, Irfan , Guftagoo with Uttara Baokar,YouTube•Sansad TV, 15-Jun-2017
7.Iinterview with Meryl Streep , The Hollywood Reporter , 2015
8.Marcus Tullius Cicero,Page 107. The Philippics ,Volume XI, Harvard University Press , 1927.
9.John Milton, Pages 203-210, “The Poetical Works of John Milton” published by Oxford University Press , 1959.
10.सूर्यकांत त्रिपाठी निराला,सरोज-स्मृति – पृष्ठ 88, निराला संचयिता, संपादक : रमेशचंद्र शाह, वाणी प्रकाशन , 2010.
 

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