पुंज प्रकाश : पलायन : मृतकों का शोकगीत और बहुलतावादी मंच

पुंज प्रकाश : पलायन : मृतकों का शोकगीत और बहुलतावादी मंचन

एक नरक से दूसरे नरक का यात्रावृतांत –कृष्ण समिद्ध

 
ध्वनि – ध्वनि…. गान रहित अवाद्य यंत्रों की वाद्य ध्वनि और कोरस…. – मौन कोरस या एक व्यक्तित्व वाला समूह या अवचेतन के कोरस से पुंज प्रकाश और दस्तक समूह का पलायन नाटक आरंभ होता है और फिर दूसरे ही क्षण नाटक सामूहिक लोक नृत्य के उत्सव में कायांतरित हो जाता है। पहला दृश्य एक मृत्यु शोक की तरह है, उसका दूसरा रुप जीवनोत्सव की तरह है। संभवतः यह मृतक समूह का शोकगीत है, जो मृतक के अंतिम बयान की तरह है। शायद यह पूरा नाटक मृतकों की स्मृति की तरह घटता है।
 
बाद के दृश्य अलग -अलग होकर भी एक ही हैं। संवाद-दर-संवाद कथा सूत्र एकदम स्थिर है कि एक कमरे में मज़दूरों का दैनिक जीवन चल रहा है। और यह कथा दैनिक कार्य कलाप के ऊपर नहीं जाती है। मज़दूरों का काम पर जाना और वापस आना और फिर अगले दिन मजदूर का वापस उसी बस रूपी अजगर के पेट में जाना और उनका दो घंटे बाद किसी आलीशान कॉलोनी में उलटी की तरह उगल दिया जाना …सब अंतहीन दैनिक नरकीय यातना है, जिसे जीवन की तरह जीना पड़ रहा है। और यह कथा रहित कथा चलती रहती है। यहाँ कथा नहीं कथा का स्थल और वातावरण महत्वपूर्ण है, मज़दूरों का कमरा, जो कथा पात्र के शब्दों में ऐसा नरक है, जिसमें रहने के लिए किराया देना पड़ता है। जहाँ मच्छरदानियाँ जीवित-कब्र की तरह तनी हुई हैं, जिसमें हर दिन मरना है और फिर जीना है। और इस नरक में रहते अभिशप्त व्यक्तियों के सामूहिक आनंद का गान एक भ्रम उत्पन्न कर सकता है कि यही स्वर्ग है। पर आनंद का भ्रम उस समय रसहीन हो जाता है, जब कोविड से अधिक भयानक रोग लॉकडाउन आता है। सामूहिक नृत्य करते पांव पेट के लिए भोजन लाने के क्रम में पुलिस के डंडे से लहूलुहान हो जाते हैं। हर दिन कला के लिए देह को तैयार करने वाला कलाकार गले में कलात्मकता की फांसी पाकर उसके प्रति ही हिंसक हो उठता है जिससे वह सबसे ज्यादा प्यार करता है। और अंतत सब उस नरक से भी निकाल दिये जाते हैं और फिर उस नरक की तरफ पलायन करते हैं, जहाँ से पहले ही पलायन कर यहाँ आये थे। पलायन मे हम किसी समस्या से निजात पाने के लिए दूसरी जगह जाते हैं। पर यह एक ऐसा पलायन है, जिसमें हम एक जगह से, जो कभी समाधान की जगह थी, उस जगह पलायन करते हैं, जो हमेशा से समस्या का केंद्र थी, वह जगह उनका अपना गाँव-घर है। इसलिए पलायन इस अर्थ में पलायन भर नहीं है बल्कि यह एक नरक से दूसरे नरक का यात्रावृतांत है जिसमें अंतत सब अपने–अपने हिस्से की कथारहित कथा सुना कर अपने पसीने से भीगे गमछों के कफन में दफन हो जाते हैं और रह जाती है केवल खाली थाली के बजने की आवाज…बस।
 
इस कथारहित नाटक में पात्र केवल पात्र न होकर वैचारिक मॉडल भी हैं। दर्जन भर पात्रों में बाबा विगत क्रांतिकारी है , एक कलाकार है , एक नर्स है, एक कलेक्टर बनने का आकांक्षी पढाकू छात्र है , एक चोर मजदूर है , जो कभी साबुन, कभी चप्पल औऱ शायद जूता भी चुराता है और जिसकी नजर में मकान मालिक से चोरी करना अपना लूटा धन वापस लेने का तरीका है, यही चोर पात्र जो पानी भरने के नाम से तीनों किडनी फेल कर बीमार होने का ढोंग करता है , संकटकाल में नायक की तरह दूसरे मज़दूरों को शरण देता है।
 
इस नाटक के पात्र कबीर की तरह कई बनियों को कहते है। “कलाकारी करना है तो कला विरोधी दुनिया में विष पीने का माद्दा रखो।” “जो करोड़ों बेघर हैं ,वे कहाँ जाएँगे”। “फसल ने खाई खेत या खेत ने खाई फसल “। “सूरज निर्विकार भाव से मोर को दाना खिला रहा था।” “दुनिया में बुरा आदमी है तो अच्छा आदमी भी है ..ये आप तय करें की आदम बनना है या आदमखोर।” ये सूक्तियाँ कलाकार , किसान , मजदूर और सत्ता के सूरज सभी पर तरह –तरह के निष्कर्ष देते हैं, जो नाटक के विस्तार की व्यापकता है। इन सूक्तियों की बौद्धकिता बोझिल नहीं करती है क्योंकि लोक की बौद्धिकता की तरह आयी है और कहने वाले पात्र के चरित्र के अनुरूप है।
 
नाटक में एक ही स्वाभाविक दृश्य है, मज़दूरों का कमरा। शुरुआत और करोना आरती के दृश्य नाटक की स्वाभाविकता को नष्ट करते है और एक क्षेपक की तरह आते हैं। बाबा के यह कहने से कि जो थाली बची है उसे भी बजा कर फोड़ लो के बाद करोना आरती का दृश्य प्रभाव को गहन नहीं करता है बल्कि छीजता है। नाटककार के लिए आवश्यक नहीं कि प्रिय लगनेवाले हर प्रसंग को अपने नाट्यालेख में जगह दे और निर्देशक के लिए और आवश्यक है कि दृश्यों को सावधानी से चुने। एक ही समय में समर्थ नाटककार भी अच्छे दृश्य के साथ-साथ खराब या अनावश्यक दृश्यों को भी रचता रहता है, यहाँ पर नाटककार और निर्देशक को समर्थ आलोचक के तटस्थ विवेक द्वारा अनावश्यक या बाधक दृश्यों को जन्म देकर भी अनाथ छोड़ देना चाहिए, मोह नहीं करना चाहिए।
‘पलायन’ नाटक संरचनात्मक रुप से निरंतर चलने वाले एक ही दृश्य योजना की संभावना रखता है। पारंपरिक तीन अंक वाले स्वरूप में जीवन का रुक-रुक कर बाधित, संपादित और सीमित चुनाव किया जाता है। पर इस प्रदर्शन में नाटक मजदूर के कमरे का एक मनोलिथिक , एकाश्मक दृश्य है , जो खत्म होकर भी खत्म नहीं होता है , चलता रहता है औऱ रूपांतरित होता रहता है। एक घटना का अंत दूसरे की शुरुआत होता है। इसमें सलेक्शन नहीं – दृश्य में एक साथ कई चीजें घट रही हैं। दृश्य चयन जीवन की निरंतरता के प्रभाव को पुष्ट करता है। सुजान सौटांग कहती हैं कि जब हम किसी फोटो को खींचते हैं, तब उस दृश्य के साथ एक एंगल का चुनाव करते हैं। वह एंगल हमार वक्तव्य होता है और एक एंगल का चुनाव दूसरे संभव सभी एंगलों को छोड़ने का दूसरा नाम है। चुना गया एंगल वास्तव में वास्तविकता को हड़पने में सक्षम है क्योंकि सबसे पहले एक तस्वीर केवल एक छवि नहीं है (जैसा कि एक पेंटिंग एक छवि है), वह वास्तविक की एक व्याख्या होती है। ( संदर्भ-1 – Page -120, The Image World, On Photography , Susan Sontag, Rosetta Books, 2005 ) पाश्चात्य द़ृश्यांकन में भी दर्शक के ध्यान को विशेष तक निर्देशित करने का चलन है। इसके समानांतर द़ृश्याकंन का एक तरीका है कि दृश्य को अपनी संपूर्णता में घटित होने दिया जाता है। द़ृश्यांकन के दूसरे तरीके में एक ही दृश्य दर्शक के साथ अलग–अलग प्रकार से घट सकता है। इस प्रदर्शन में सामने संवाद-दृश्य चल रहा होता है, तब पीछे नए चप्पल की चोरी हो रही होती है या पीछे नर्स आरती कर रही होती है या मूक पात्र पीने का पाईप लगा रहा होता है, चोटिल मूक पात्र अपना दर्द साझा कर रहा होता है। यह शिल्प दर्शक को चयन का विकल्प देता है। एक नाटककार को हमेशा प्रयोग के अनुसार भाव, वृति एवं प्रवृति का विन्यास करना पड़ता है। ( संदर्भ- 2 – न होकरसजं काव्यं किञ्चिदस्ति प्रयोगत: । भावो वापि रसो वापि प्रवृत्तिर्वृत्त्तिरेव च ।। 126 ।। अर्थात ऐसा कोई काव्य नहीं है जो एक ही रस से संपन्न होता है। अत: प्रयोग के अनुसार उसमें भाव रस वृति एवं प्रवृति का विन्यास करें। पृ- 830, नाट्यशास्त्रम् , भरतमुनि, प्रथम भाग, काशी हिन्दू विद्यालय मुद्रणालय, 1971.) पुंज प्रकाश ने बहुलतात्मक नाटक दृश्य का निर्माण कर कठिन मगर सक्षम संरचना का विन्यास किया है।यह नाटक को बहुलतावादी और लोकतांत्रिक स्वरूप देता है, जिसमें कोई पात्र, घटना या संवाद प्रमुख नहीं है बल्कि सभी पात्र, घटना , संवाद या मौन प्रमुख हैं औऱ सब गौण भी हैं।
 
इस नाटक को समूह नाटक कहा जा सकता है, जिसमें घटना का होना सामूहिक है। अरस्तु ने कोरस को एक अभिनेता माना था (संदर्भ – 3 – page -30, Poetics , ARISTOTLE , Translated by MALCOLM HEATH, PENGUIN BOOKS, 1996.) , जिसमे पूरा समूह मिलकर मात्र एक अभिनेता रह जाता है और एक अभिन्न अंग की तरह कार्रवाई में हिस्सा लेता है। पर इस सामूहिकता के कोरस में व्यक्तित्व की विशिष्टता का संवहन नाटक का उल्लेखनीय प्रभाव है। मजदूर के दैनिक जीवन के चित्रण के कोरस में बाबा की दार्शनिकता है, एक मजदूर है जो फुल मर्डर करने वाला मर्दवादी पुरुष है, लोक कला का अभ्यास करने वाला कलाकार है और ये सारी व्यक्तिगत विशिष्टताएं मिलकर नाटक में मंचीय जनतांत्रिक सामूहिक कोरस पात्र का निर्माण करती हैं। यह कोरस भाषा के स्तर पर भी है। यह नाटक हिंदी भाषा की होकर भी हिंदी की नहीं है बल्कि इस नाटक की भाषा हिंदी, भोजपुरी, मैथिली ,मगही और हिंगलिश भाषाओं का कोरस है। नाटक में प्रयुक्त लोकगीत का कोलाज भी गीतों के कोरस की तरह है।
 
परंतु नर्स का मज़दूरों के कमरे में रहना अस्वाभाविक है, जो स्थूल यथार्थ के विपरीत है। नौकरीपेशा स्त्री पात्र का इस तरह से मज़दूरों के कमरे में होने की कई व्याख्या हो सकती है। जैसे नर्स का कमरे में अपना निजी इतिहास , कलाकार से प्रेम या बाबा का ख्याल रखना आदि कई कारण हो सकते हैं। मगर इतने लगाव के बाद भी मासिक वेतन वाली नर्स के रहते हुए किराया के अभाव में घर छोड़ना तथ्यात्मक ही नहीं भावनात्मक और चारित्रिक त्रुटि है। यथार्थवादी अभिव्यक्ति में तर्कशील जादू सहन किया जा सकता है, मगर तर्कहीन भावनात्मक और चारित्रिक त्रुटि नहीं। नाटक और सिनेमा निर्देशक इंगमार बर्गमन ने ‘द सेवंथ सील’ में कई ऐतिहासिक तथ्यों को गलत रखा था, मगर उनमें चारित्रिक त्रुटि नहीं थी । इस तरह की तर्कहीन,भावनात्मक और चारित्रिक त्रुटि नाटक के य़थार्थवादी प्रभाव में छेद की तरह है।
 
नाटक का उदेश्य संगीतमय ढंग से हास्य और व्यंग्य में माध्यम से वर्तमान में घटी भीषण त्रासदी का अति यथार्थवादी चित्रण करना है।(संदर्भ-4- यह दस्तक, पटना की नवीनतम नाट्य प्रस्तुति है, जिसका लेखन, परिकल्पना और निर्देशन पुंज प्रकाश ने किया है। नाटक की अवधी एक घंटा पचास मिनट और भाषा हिंदी, भोजपुरी, मैथिली और मगही है। नाटक संगीतमय है व हास्य और व्यंग्य में माध्यम से वर्तमान में घटी भीषण त्रासदी का अति यथार्थवादी चित्रण करती है। प्रस्तुति 10 और 11 जुलाई 2022 को संध्या 6:45 बजे पटना के कालिदास रंगालय में मंचित किया आएगा।, फेसबुक पेज पर प्रदर्शन का दस्तक समूह का विवरण।
 
https://www.facebook.com/events/1392106387934900) यह नाटक संगीतंमय है, पर संगीत की लक्कड़ध्वनि है, जो भाषा के उसी कोरस में है। इस तरह से यह संगीत का भी कोरस है, जहाँ गीत का भूत वर्तमान में नये अर्थों को ग्रहण करता है, जो अर्थ रंग निर्देशक चाहता है। “गोकुला में माचल हाहाकार,गोकुला में माचल हाहाकार, गोकुला में माचल हाहाकार” का गान हो या दूसरा यहाँ गान गीत भर नहीं रह जाता है, वेदना के संगीत में बदल जाता है। लॉकडाउन विपदा को आधार बनाकर ‘पलायन’ को भिखारी ठाकुर के गीतों के बेहतरीन कोलाज में बेहतरीन ढंग से पिरोया गया है।( संदर्भ-5- Ziya Hasan facebook post, 10.24 PM, 13 July 2022. ) संगीत की ध्वनि हर चीजों में विराजमान है खोज करने की जरूरत है। नाटक में जैसे ही संगीत की बात आती है, तब हारमोनियम, तबला, ढोलक, गिटार और अन्य वाद्ययंत्र की तलाश की जाती है। यह नाटककार, रंगकर्मी, रंगनिर्देशक पुंज प्रकाश जी का खोज किया गया वाद्ययंत्र किसी साज बाज से कम नहीं था। छड़ी सटीक से, जग से , प्लास्टिक की बाल्टी , प्लास्टिक के डिब्बे से संगीत का निर्माण कर एक अलग अजूबा संगीतमय प्रस्तुति दर्शकों के बीच दिखलाई गई। (संदर्भ-6-Ramesh Singh , Facebook Post, 22.02 PM, 14 July 2022) डॉक्टर तुलसी राम ने अपनी किताब “मुर्दहिया” में एक शब्द का प्रयोग किया है ‘लक्कड़ध्वनी’, इसी लक्कड़ध्वनी का उपयोग दस्तक टीम ने नाटक में अलग-अलग लोक भाषाओं की लोक गीतों में अद्भुत तरीके से किया है। (संर्दभ-7- Yashwant Mishra, Facebook Post, 18.88 PM, 11 July 2022 ) दर्शकों की इन सुविचारित अनुभूति से कोई इनकार नहीं कर सकताl
 
नाटक में लॉकडाअन से पहले तक का हिस्सा सीधे हमें मजदूर के जीवन से जोड़ देता है। इस हिस्से को नाटक के कई पात्र ने बकलोली कहा हैं, मगर नाटक का बकलोली वाला हिस्सा दर्शक और मजदूर पात्रों को एकाकार कर देता है। मजदूर का दैनिक जीवन दर्शक को अपना जीवन लगता है, जिसमें नई चमचमाती कार नहीं स्टील की चुनौटी को पाना जीवन का एक मधुर सपना होता है। इस हिस्से में नाटक सफल है। पर इसके बाद का हिस्सा लॉकडाउन शुरु होने पर इतनी तेजी से विलोपित हो जाता है कि नाटक का यह हिस्सा अधूरा लगता है और चुभता है। पहले हिस्से के कोरस का आनंद दूसरे हिस्से के कोरस की त्रासदी से बेहतर ढंग से दर्शक तक पहुँच जाता है। पहला हिस्सा अनुभूति की तरह घटता है, बाद का हिस्सा मृतक के बयान की तरह सुनना पड़ता है।पर दूसरे हिस्से को पहले भाग के बकलोली के समकक्ष खड़ा किया जा सके , तब यह ऐतिहासिक नाटक की संभावना रखती है।
 
दरअसल यह इस नाटक की नहीं भाषा या कला माध्यम की समस्या है। कुल मिलाकर पलायन शब्द ही इस त्रासदी को व्यक्त करने में पूर्ण रुप से समर्थ नहीं है औऱ उसी तरह यह नाटक भी। सब अपने-अपने गाँव से एक पलायन के बाद इस कमरा -नरक में आये थे और उस पलायन के बाद पुन: गाँव-नरक में वापस पलायन करना पलायन के अर्थ को नये स्तर पर ले जाता है और यह नये पलायन के अर्थ को असाधारण करता है जहाँ पलायन शब्द नाकाफी लगता है। पलायन में एक सकारात्मक विकल्प या गंतव्य या शरणस्थल मौजूद होता है, जो इस संदर्भ में अनुपस्थित है। पलायन शब्द इस त्रासदी को व्यक्त कर पाने में असमर्थ है। संदर्भ और जीवन की घटना भाषा को कैसे नाकाफी करती है, यहाँ महसूस की जा सकती है । और जब भाषा ही नाकाफी हो, तब एक नाटक का या फिल्म की क्या बिसात और एक कलाकार की भी क्या बिसात। जैसा कि पलायन नाटक का एक पात्र कहता है कि ट्रेनर ही असमर्थ है। कुल मिलाकर पलायन के निर्देशक पुंज प्रकाश ने कला की असमर्थता को सहते औऱ समझते हुए एक समर्थ नाटक गढ़ने का प्रयास किया है। और अंत में बस इतना ही कि कलाकार अपने द्वारा व्यक्त कला की असमर्थता और प्रयुक्त कला माध्यम की सीमा को आगे ले जाने पर असमर्थ रहने पर और कला-माध्यम या भाषा की सीमा को सहते रहने पर यही कर सकता है जो इस कविता का कवि अपने आप पर करता है-
सब चुपचाप सहन करनेवाला पिस्सू
मैं अपने आप पर थूकता हूँ।
(संदर्भ -8- पुंज_प्रकाश, फेसबुक पोस्ट, 21 जून 2019.)
(इस कविता का कवि और पलायन नाटक के निर्देशक एक ही व्यक्ति हैं।)
 
अभी इस अभूतपूर्व त्रासदी को व्यक्त करने में सभी कला माध्यम को नया जन्म लेना पडेगा, वह भी कई बार,..और तब तक कला-माध्यम की सीमा को चुपचाप सहने वाले पिस्सु कलाकार अपनी कला पर थूकने के अलावा कुछ नहीं कर सकता…शेष यह कि इस नाटक की आगमी प्रस्तुतियों से बहुत उम्मीद है और तब तक यह समीक्षा अधूरी है ।
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संदर्भ
1 – Page -120, The Image World, On Photography , Susan Sontag, Rosetta Books, 2005
 
2 – न होकरसजं काव्यं किञ्चिदस्ति प्रयोगत: । भावो वापि रसो वापि प्रवृत्तिर्वृत्त्तिरेव च ।। 126 ।। अर्थात ऐसा कोई काव्य नहीं है जो एक ही रस से संपन्न होता है। अत: प्रयोग के अनुसार उसमें भाव रस वृति एवं प्रवृति का विन्यास करें। पृ- 830, नाट्यशास्त्रम् , भरतमुनि, प्रथम भाग, काशी हिन्दू विद्यालय मुद्रणालय, 1971
 
3 – page -30, Poetics , ARISTOTLE , Translated by MALCOLM HEATH, PENGUIN BOOKS, 1996.
 
4- यह दस्तक, पटना की नवीनतम नाट्य प्रस्तुति है, जिसका लेखन, परिकल्पना और निर्देशन पुंज प्रकाश ने किया है। नाटक की अवधी एक घंटा पचास मिनट और भाषा हिंदी, भोजपुरी, मैथिली और मगही है। नाटक संगीतमय है व हास्य और व्यंग्य में माध्यम से वर्तमान में घटी भीषण त्रासदी का अति यथार्थवादी चित्रण करती है। प्रस्तुति 10 और 11 जुलाई 2022 को संध्या 6:45 बजे पटना के कालिदास रंगालय में मंचित किया आएगा।, फेसबुक पेज पर प्रदर्शन का दस्तक समूह का विवरण। https://www.facebook.com/events/1392106387934900
 
5- Ziya Hasan facebook post, 10.24 PM, 13 July 2022.
 
6-Ramesh Singh , Facebook Post, 22.02 PM, 14 July 2022
 
7- Yashwant Mishra, Facebook Post, 18.88 PM, 11 July 2022
 
8- पुंज_प्रकाश, फेसबुक पोस्ट, 21 जून 2019.

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