फाउल प्ले - एक समीक्षक का यात्रावृतांत
कृष्ण समिद्ध
हर शहर की त्वचा होती है। और आप जब उस शहर में होते हैं, तब वह शहर अपने हाथों से आपको छूता है और हर हाथ की तरह अंगुली के निशान आप पर छोड़ता है। 2023, 31 जनवरी, जाता हुआ जाड़ा, चार बजा था, मैं भले ही पटना में था, मगर मेरे ऊपर मुजफ्फरपुर शहर की अंगुलियों के निशान थे। मेरे साथ ‘थोड़ा मुजफ्फरपुर‘ भी पटना आ गया था। कल रात को 11 बजे लौटते वक्त पता नहीं क्यों कार का रेडियो भी मुजफ्फरपुर का FM पकड़े रहा, मानो कार जो जगह छोड़ने के लिए बनी है, वह भी मुजफ्फरपुर शहर छोड़ना नहीं चाहती है। कल शाम 4.18, 30 जनवरी 23, मैं बेरिया रोड में था। मुजफ्फरपुर का नया बायपास है। यह मजेदार है कि रुकते हुए दिल की तरह शहर का भी बायपास नये सड़को से किया जाता है। जितना बड़ा शहर , उतना ज्यादा नये-पुराने बायपास। हर बायपास रोड की तरह बेरिया पुरा शहर नहीं हुआ, पुरा मुजफ्फरपुर नहीं हुआ । किसान के खेत के आगे के चेहरे दुकान हो रहे थे और उसके पीछे खाली खेत ही खेत था। इसी बेरिया रोड से चार किलोमीटर दूर रेड लाईट एरिया चतर्भुज स्थान है, जिसने प्रभात रंजन Prabhat Ranjan को कोठागोई उपन्यास दिया। तीन साल पहले एक साक्षात्कार में (जिसे अपनी काहिली में अभी तक संपादीत नहीं कर पाया) अनामिका ने बताया मुजफ्फरपुर की गलियों ने उन्हें कविता दी। और यही मुजफ्फरपुर है , जिसे कवि रमेश श्रृतंभर Ramesh हमेशा लीची का शहर कहते हैं। तो ऐसे ही शहर का हिस्सा बन रहे बेरिया रोड में बैठा इंतजार कर रहा था ……आधे ठंड में कोल्ड ड्रींक पीता हुआ सोच रहा था ….इसी समय… इसी शहर में बिहार विश्वविद्यालय में कवि गोष्ठी हो रही है, जिसमें नताशा, निवेदीता Nivedita Jhaआदी कई कवयित्री कविता पढ़ रही होंगी और मैं उससे दूर कार में अकेला बैठा हृषिकेश सुलभ Hrishikesh Sulabh का पोस्ट पढ रहा था कि “मात्रा का विवेक ज़रूरी है । प्रशंसा करते हुए तो बेहद जरूरी वरना जिनकी प्रशंसा हो रही है, उनकी मिट्टी पलीद होते देर नहीं लगती ।” हृषिकेश सुलभ ने इस बात को इसी शहर में महसूस किया था। एक ही शहर कैसे अलग- अलग रुप में अलग-अलग साहित्यकार के साथ घटा है…अकेला इंतजार में बैठा सोच रहा था। तभी मेरा फोन बजा। देखा रणधीर कुमार Randhir Kumarका नंबर था। कौंधा कि आज तो फाउल प्ले का रिहर्सल था और मुझे वो देखना था। ऱणधीर ने बताया कि कल भी रिहर्सल है ….. आईये। मैं मुजफ्फरपुर के बारे में सोच रहा था, तो मानो पटना शहर ने रणधीर कुमार के रुप में कॉल किया। ये विचित्र है।मेरा शहर पटना….. शायद मुजफ्फरपुर से जल रहा होगा । अब मैं मुजफ्फरपुर में बैठा पटना और कालिदास रंगालय में पहुंच गया। और फिर केरल के त्रिचूर पहुंच गया, जो अब त्रिस्सूर है। नये नाम को ग्रहण करने में बहुत स्लो हुँ। मुंबई मेरे लिए अब तक बंबई ही है, कोलकाता मेरे लिए अब तक कलकत्ता ही है , जिसपर त्रिलोचन की चंपा बजर गिराती है ‘कलकत्ते पर बजर गिरे‘। तो ऐसे ही त्रिस्सूर मेरे लिए त्रिचूर ही है। मैं उसी त्रिचूर में पहुँच गया । त्रिचूर अंतरराष्ट्रीय नाट्य महोत्सव Itfok India में रणधीर कुमार के फाउल प्ले का मंचन पीटर ब्रुक्स के नाटक के साथ होने वाला है। फिर शुरु हुई मेरी फैंटसी…… अगर में त्रिचूर में होता तो कब में एक्टर मुरली थियेटर में होता और कब में ब्लैक बॉक्स में होता । Mehdi Farajpour का KA-F-Ka देखता । Ave Maria देखता, तब The Museum छोडना पड़ता क्योंकि दोनों एक ही समय है। Peter Brook का Tempest Project तो जरूर देखता। पर मैं जानता हुँ कि लाख चाहते हुए मैं उस समय त्रिचूर – केरल में नहीं हो सकता हूँ, उस समय के लिए पहले से ही कहीं कमिटेड हुँ। अपना कमिटमेन्ट तोड दूँ । कभी – कभी बेईमान होने में कितना फायदा होता है। इन्हीं फैंटसी के बीच में रात 11 बजे मुजफ्फरपुर FM सुनता पटना लौट रहा था। मेरी कार हाजीपुर के फोरलेन पर 120 के ऱफ्तार से दौड़ रही थी और उससे भी तेज रफ्तार से मेरा मन पटना, मुज्जफरपुर और त्रिचुर में एक ही साथ आ-जा रहा था ।
31 जनवरी। आज दिन और तेज था। सुबह उठते ही मेरे मन में फाउल प्ले चल रहा था। पता नहीं क्यों …. आज डॉक्टर ने कुछ दवा देकर आपरेशन का डेट कल कर दिया। मैं रॉकेट की तरह पेशेंट को शाम 3.31 तक राजेन्द्र नगर से दानापुर में घर पहुँचा दिया, दवा दिया और निकल पड़ा। निकलने से पहले संजय कुमार कुंदन Sanjaykumar Kundan को फोन कर के पूछा वह कहाँ है ? हमारे बीच अघोषित नियम है कि बाहर निकलते वक्त पूछ लेते है कि दूसरा कहाँ है और संभव हुआ तो हम साथ हो लेते हैं। मामला सेट हो गया। बाईक उठा , दो हेमलेट लटका कर उड़ते हुए कालिदास रंगालय 27 मिनट में पहुँच गया और दो मिनट में संजय जी पहुँच गये। और हम कालिदास रंगालय के अंधेरे में प्रवेश कर रहे थे। कमाल यह था मैं हॉस्पीटल से आ रहा था और संजय जी अंजनी कुमार सिंह की पत्नी के मृत्युभोज से आ रहे थे और पता नहीं हॉस्पीटल और मृत्युभोज के स्थान की अंगुली के निशान हमारे साथ कालिदास रंगालय के अंधेरे में प्रवेश कर रहा था।
उस अंधेरे में भी रणधीर कुमार का चेहरा संजय कुमार कुंदन को देख कर फ्लड लाईट की तरह चमक उठा। मैंने कहा- कल नहीं आने के मुआवजा में संजय जी को लाया हुँ।
हम जब अंदर प्रवेश कर रहे थे। तब बिहारी 2015 में अखलाक के मॉब लिंचिंग वाला सीन कड़ाही के साथ कर रहे थे। सीन खत्म होने पर उनकी इच्छा थी कि वो एक बार औऱ उस सीन को करें। पर शायद समय काफी हो गया था और रन थ्रू होना बाकी था। तय हुआ कि अब टी- ब्रेक और फिर रन थ्रू।
संजय – टी- ब्रेक विदाउट टी।
और सब के चहरे पर हँसी तैर गयी और यह उस हल्के अंधरे में भी दिख गया। कुछ चीजों को देखने के लिए रौशनी अनिवार्य नहीं होती। हरिशंकर रवि Harishankar Ravi ने कहा चाय आ रही है। रवि के द्वारा तुलसीराम के मुर्दहिया का मंचन 18 नवंबर 22 में हुआ था और चाहकर मैं उसमें जा नहीं सका था। रवि भी मुजफ्फरपुर से हैं , सो मुजफ्फरपुर रवि के साथ और थोड़ा मेरे साथ पटना के कालिदास रंगालय में आज बैठा हुआ था। चाय आने वाली थी।
रणधीर ने फोन पर दिल्ली में बैठे साथी को विडियो कालिंग से बताया कि रन थ्रू लाईव देख ले।
रणधीर – विशाल….हरिशंकर लाईव करेगा तुझे।
विशाल – कौन
रणधीर- अरे हरि । डन । 4.30 । तू रेडी है न। टी ब्रेक है। … मेरे फोन से या हरि के फोन से किसी से भी आयेगा तुझे। पुरा रन है। (फोन रख कर) मेरा डिजाईनर दिल्ली में बैठा हुआ है। अब यह सब भी हो गया है। रिहर्सल दिल्ली में बैठ कर देखेगा। (मंच से) हो गया बाबा आपका। एक बार सबको बुला लिजिए। सब स्टेज पर आ जाओ। एवरीवन। (हमसे) 1 घंटे 20 मिनट का है। सेट नहीं दिख रहा है। जो सरफेस है नीचे वो नहीं दिख रहा है। वो अभी लगाया नहीं है, वहीं (त्रिच्ची) लगायेगें। बाकि एक्टिंग है और props है। शब्द है। सुनाई देगा। (मंच से) तीन..एक नौ और कौन एक है। आओ। आफिसियली ये भी कह सकते हैं हमारे अभी का जो रन है वह आखरी रन है। कल समान ट्रांसपोर्ट से चला जायेगा। आपके पास प्रोपरेटी नहीं होगा।.दो दिन ट्रेन में। पाँच के सुबह टेक रिहर्सल होगा। आप लोगों ने काम कर लिया , तब इन लोगो ( टेक्निकल आर्टीस्ट) का टाईम आयेगा..रातजग्गा करने का। जो proper प्ले होगा , वह सीधे शो में होगा। क्लियर। सो चाय पीकर ..एक प्रोप्रटी चेक करेगें। खत्म होने के बाद हरबड़ -हरबड़ नहीं करेगा। एक बार प्रोपर्टी चेक करेगें कि कुछ छूट नहीं जाये।
और चाय आ गयी और बात शुरु हुई।
मैं- कल नहीं आया तो इनको (संजय जी को) लाया गिफ्ट में। जहाँ आप जा रहे हैं, उसमें एक नाटक काफ्का है। उसमें प्रोजेक्शन और लाईटिंग को मर्ज कर दिया है।
रणधीर- हमारे नाटक में भी है। हमारे नाटक में 90 % है जो लाईटस….. वह प्रोजकेशन से है। 10 % लाईट में 7 % लाईटस हैं …वह एक्टर के हाथ में हैं। 3% लाईटस हैं वह इनके (रवि के) हाथ में है।
मैं- हवा के ऑक्सिजन की मात्रा से भी कम है। यानी हमलोग बैठकर .यहा अभी 40 % नाटक देखेगें, 60 परसेंट दिमाग में देखना होगा। फिल्म में प्रोजेक्शन ही है..शुरु से ही..पहली फिल्म से। मगर एक परसोना (1966 ई) फिल्म है इंगमार बर्गमैन की……उस फिल्म की जो स्टार्टिंग है…उसमें communication ….जो multiple scene और लाईट का है….. Face का है, वो अपने आप में युनिक है, इन सब से वो एक गर्भ को दिखाते हैं। विभिन्न मिडियंमों का वो जो मिक्सचर है ……उनका जो फाइन ट्युन है, वो अद्भुत है।
रणधीर- लोग कहते हैं कि ये मल्टीमीडिया बनाता है..ये क्या बनाता है…..
मैं- दृश्य है। दृश्य में कुछ भी हो सकता है।
रणधीर- सही बात। दूसरी बात थियेटर की टेकनोलेजी इतनी आगे बढ़ गयी है इतनी आगे बढ़ गयी है…एक डिजाईनर है वह सिर्फ साउंड से दृश्य create कर देता है और आप खुद ही perform करने लगते है। इस तरह से है मल्टी मीडिया।
मैं- आप अगर इसका use नहीं करते हैं, तो बहुत कुछ खोते हैं। एक संमय था…यवनिका ( पर्दा) नहीं था, हिंदी यवन आक्रमणकारी (120 BC में ) इसे अपने साथ लाये था। यवनिका भारतीय रंगमंच के लिए नया था। उस समय ये भी एक नयी चीज होगी, उस समय कई लोग इससे भी परहेज करते होगें। तभी मेरे मन में भरत मुनि बोल रहे थे –
न तज्ज्ञानं न तच्छिल्पं न सा विद्या न सा कला।
न स योगो न तत्कर्म नाट्ऽयेस्मिन् यन्न दृष्यते॥
ऐसा कोई ज्ञान शिल्प, विद्या, योग एवं कर्म नहीं है जो नाटक में दिखाई न पड़े ।
तभी रणधीर के मन में शायद ब्रेख्त बोलने लगे।
रणधीर – आपने इंगमार बर्गमैन की बात की। फिल्म की बात न भी करें। ब्रेख्त ने थियेटर में प्रोजेक्शन का इस्तेमाल किया था, वह क्या है।
तभी अपने इपिक थियेटर पर खड़े Brecht मेरे कान में alienation effect फुसफुसाते लगे – less to the feeling, more to reason। ब्रेख्त मुझे 1931 में Men Equal Men के दूसरे दृश्य में 4-1 = 3 और दृश्य 4 में 3+1= 4 प्रोजेक्शन करते दिखने देने लगे।
मैं – रंगमंच का आधार अभिनेता और उसका शरीर का अभिनय भी यथार्थ नहीं है। अभिनेता का अभिनय भी यथार्थ का प्रोजेक्शन भर ही होता है।
हमारी चाय खत्म हो गयी थी। समय हो गया था। रन थ्रू शुरू हो गया। पटना दिल्ली को लाईव होने लगा था विशाल तक भाया रवि का फोन।
रन थ्रू शुरु हुआ। अधूरी चीजों का अपना मजा है। प्रोजेक्शन तो आज भी नहीं था। बिना प्रोजेक्शन के फाउल प्ले आधा भर था। बिना प्रकाश-योजना नाटक और अधूरा था। आधे – अधूरा प्यार की तरह ‘बनता हुआ आधा नाटक’ को देखना पूरे प्यार और तैयार नाटक से अधिक सुख देता है, आज मैंने महसूस किया। जब दलितों की हत्या के बाद कोरस ने खाली बाल्टी उलटाया , तब मैंने लाल रक्त को गिरते देखा। मुझे मुक्तिबोध के ‘अंधरे में’ का रक्त स्नात पुरुष दिखा –
“लाल-लाल कुहरा,
कुहरे में, सामने, रक्तालोक-स्नात पुरुष एक,
रहस्य साक्षात् !!”
जो नहीं है, उसको दृश्यगत करना नाटक की ऐसी ताकत है, जिससे फिल्म ईर्ष्या करती है। नाटक का अधूरा होना दर्शक को कई कल्पनाओं में खींच कर ले जाता है और नाटक को कविता की तरह बहुल अर्थी बनता है। आधे-अधूरे नाटक के पूरे सौंदर्य में धीरे-धीरे मैं जाने लगा।
किस्सागो के किस्सा की तरह नाटक शुरु होता है। इसमें कोई पात्र किसी दूसरे को कुछ नहीं बोल रहा है। धीरे-धीरे ये मृतककों के रीपोर्ट में बदल जाता है। और अंतत: ये प्रेतों के बयान में बदल जाता है।
दर्शक यातनाओं के टाईम ट्रवेल पर निकल पड़ता है जिसमें वह एक मॉब लिंचिंग से दूसरे लिंचिंग पर टाईम जंप करता रहता है। पुरा नाटक एक टार्चर की तरह है। अखलाख के साथ पुरा दर्शक उस जलते हुए कडाहे में होता है। और पुरा मंच नर्क में बदल जाता है और दर्शक दीर्घा नरक के यातना का हिस्सा हो जाता है।
2018 में मोतीहारी केंद्रीय विश्वव्द्यालय के प्रोफेसर संजय कुमार के अटल बिहारी वाजपयी पर दिये गये बयान के बाद लिंचिंग का दृश्य चल रहा था। मंच पर आहत संजय कुमार शापित पंचिंग बैग से जूझ सा रहा था। इस दृश्य को देखकर इंगमार बर्गमैन की वर्जिग स्प्रिंग (1960 ई.) का मैक्स वॉन शीडो का एक दृश्य याद आ गया। मध्यकालीन 13वीं सदी के ओपेरा पर बनी इस फिल्म में चर्च की यात्रा के दैरान नायक की बेटी का रेप के बाद एक पशु की तरह हत्या कर दी जाती है और हत्यारे उसके शव से चुराये कपड़े-गहने को बेचने उसके पिता के पास ही आ जाता है। उन हत्यारों में एक बच्चा भी है और उनको एक कमरे में बंद कर वह बाहर आ जाता है। पुरे दृश्य में एक लांग शाट में पिता का पुरा शरीर कैमरे की तरह पीठ किये रहता है। वह हत्या के लिए तैयार हो रहा, जिसके लिए उसका मन तैयार नहीं है। उसका यह अर्तसंघर्ष। पास के एक छोटे पेड़ को झकझोर कर गिराता है। उसके मन का कशमकश पेड़ को झकझोरने में दिखता है। वैसा ही कुछ कशमकश इस दृश्य में भी था।
इतने डीजाईन ओरियेंट प्रस्तुति में अभिनेता को अपनी उपस्थिति महसूस करवा पाना कठिन होता है। अभिनेता के लिए कैदखाना हो जाती है। फिर भी आदिल रसीद Adil Rashid तीन तरह से सामने आये और अपनी उपस्थिति महसूस करवाई ….. कभी हिंदू नेता योगी की तरह, कभी मुस्लिम नेता औवेसी की तरह …एक ही जोकर…. रुप दो अलग- अलग। अंजलि वर्मा Anjali Sharmaजब सिंटेकटस वाटर टंकी पर खड़ी होती है, रंगमंच पर पात्र समान्य से असान्य उंचाई पर जाता है और रंगमंच पर अलग तरह का कन्टूर रेखा खिंचती है। अंजलि शर्मा के अभनिय में रेंज दिखा. वह अलग-अलग पात्र में आ जा रही थी….चाहे किस्सागो का पात्र हो या Rajesh Joshi की कविता का पात्र हो।
बीच प्रदर्शन के बीच अचानक लाईन कट गयी और अँधेरा। नाटक चलता रहा। बारी से बारी मोबाईल का लाईट जला कर रखा गया। फिर props बॉयस्कोप का लाईट जलाया गया औऱ फिर तीन बैट्री वाले एल ई डी बल्ब भी आ गये और जुगाड़ से नाटक में रोशनी आ गयी। जुगाड़ और गरीब हिंदी रंगमंच। प्रेमचंद रंगशाला , 4 जनवरी, 2023 सीमा आजमी Seema Azmi के सारा के मंचन होने वाला था……पुंज प्रकाश Punj Prakash और मैं शुरु होने का इंतजार बाहर कर रहे थे। अचानक उनके अभिनय कक्षा का एक छात्र मिला । वह जिस कपड़े में वर्कशॉप में आया था, उसी में शाम को आ गया था।
पुंज -( उस छात्र से) स्नान हुआ है, वैसे ही आ गये हो।
छात्र – भैया क्रिसमस में किया था।
पुंज – ( मुझ से) देखिए जिनका खुद का कोई चरित्र न हो, वह किसी चरित्र को कैसे निभायेगें । समीक्षा लिखते हैं…यह भी लिखिये …. कैसे बिना संसाधन के हम नाटक करते है।
नाटक खत्म हुआ। इस नाटक में इतने लेयर थे । एक के बाद एक दृश्य। हर दृश्य में हम टाईम जंप कर रहे थे। हम मोती हारी के संजय कुमार से अखलाक तक, फिर अखलाख से गौरी लंकेश तक, फिर कश्मीर में, फिर कमोड में… पुरा नाटक यातना का रोलर कोस्टर है। एक दृश्य में निरंतर आई सी यू का बीप-बीप पार्श्व ध्वनि हमें, रंगालय और पुरे देश को ICU में होना महसूस करा रही था। सैमुएल पी. हंटिंगटन का सभ्यताओं – संस्कृति का टकराव का यथार्थ मंच पर था। नाजीवाद, टैगोर का मानवता वाद कई तरह से बातें कोरस ने रखा।
नाटक के बाद की बातचीत।
संजय – अभी के समय में इस नाटक को करना साहस का काम है।
रणधीर – मुझे लगा इस नाटक शो दो ही जगह संभव है – कलकत्ता और केरल में। कलकत्ता में हो चुका और केरल में होने वाला है।
मैं – दो दृश्य. पहला कश्मीरी पंडित वाले में महिला पूजा करते हुए आपबीती कह रह रही हैं, क्या उसकी जगह कश्मीरी पंडित के राहत -कैंप की दिनचर्या नहीं हो सकती थी?
रणधीर – दरअसल उस समय कश्मीर संगीत पार्श्व में है। जो हिंदू और मुस्लिम के लिए अलग- अलग तरह से है। साथ ही जैसे हमारे बिहार में छठ होता है, वैसे ही वे कश्मीर का एक पर्व कर रही हैं।
मैं – दूसरा दृश्य. गौरी लंकेश का बयान. बयान के साथ उनकी एक्टिविटी में कपड़ों में आयरन करना है। दोनों दृश्य में पूजा या आयरन करने की एक्टिविटी स्त्री के प्रति घरेलू होने का आग्रह नहीं हैं ?
रणधीर – हाँ, इस तरह से देखा जा सकता है, मगर इस तरह से मैं नहीं देखता। गौरी लंकेश आयरन करने के साथ- साथ सिगरेट पी रहीं है, अभी के दृश्य props के बिना था थे, सो दिखा नहीं होगा। इस दृश्य के पीछे मेरा विचार यह था कि गौरी लंकेश कहते ही मन में पढ़ने- लिखने वाली कामकाजी महिला की छवि बनती है, जबकि गौरी लंकेश का अपना व्यक्तिगत रहा जीवन रहा होगा।
बातें और थीं । पर उनको त्रिच्ची- तिरशूर जाना था, सो मैं और संजय जी बाहर निकले। निकलते -निकलते दर्शक के तौर पर मुझे लगा की मेरे साथ मुक्तिबोध भी बैठे हैं ” मुक्तिबोध शुक्रवारी में तिलक की मूर्ति के पास ही गली में रहा करते थे । एक्सप्रेस मील के मजदूरों पर जब गोली चली तो रिपोर्टर की हैसियत से वे घटनास्थल पर थे । उन्होंने सिरों का फूटना और खून का बहना अपनी आँखों से देखा । ‘ अंधेरे में ‘शमशेर बहादुर सिंह ने मुक्तिबोध के उन्हीं नागपुर जीवन के बहुत सारे संदर्भ को देखा। हम दर्शक भी मुक्तिबोध की तरह आम लोगों के क्षत विक्षत शरीर और मन देख रहे थे – वह देखना ही था फाउल प्ले। इस फासीवादी भावना से नीत्शे जैसे दार्शनिक भी बच नही पाये थे । नीत्शे के Übermensch या महामानव के होने की कीमत कहीं न कहीं कोई आम आदमी को ही चुकानी पड़ती है। मानव से ऊपर मानव के विचारों को रखने का फाउल प्ले चलता रहता है।
.बाहर निकला। चाय के कई कप ……पीया गया, कई सिगरेट…..जले। कुछ अभिनेता के हाथ देखकर भविष्यवाणी की गयी। और फिर हम अपने घरों में लौट गये और मेरे साथ थोड़ा- थोड़ा मुजफ्फरपुर, त्रिचूर, कालिदास, प्रेमचंद रंगशाला, बलैक बॉक्स… सब मेरे घर आ गये। मेरा फोटोग्राफर मन उदास था कि कोई तस्वीर नहीं लिया आज और ‘यह आज’ केवल मन में ही रह जायेगा। रात के 10 बज गये थे और सुबह ऑपरेशन के लिए जाना है……और मैंने लिखना शुरू किया…. हर शहर की त्वचा होती है।
( समाप्त)
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